SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 952
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० २३ www. kobatirth.org उत्तरस्थान भाषादीकासमेत । भृकुटी, और ललाट में ऐसी वेगवती बेदना को उत्पन्न कर देती है कि जो सूर्योदयकाल से बढने लगती है और मध्यान्ह तक बढ़ती चली जाती है । और मध्यान्ह से पीछे धीरे धीरे घटती चली जाती है । इसे सूर्यवर्त कहते हैं, यह रोग भूखे मनुष्य को बहुत सताता है, इसमें कभी ठण्ड और कभी गरम अच्छा लगता है । कपालगत नौ व्याधि | शिरश्वेवं च वक्ष्यते कपाले व्याधयो नव । अर्थ - मस्तक की तरह कपाल में भी नौ व्याधियां होती हैं, अब उनका वर्णन करते हैं । उपशीर्षकरोग | कपाले पवने दुष्टे गर्भस्थस्याऽपि जायते । सवर्णो मरुजः शोफस्तं विद्यादुवशीर्षकम् । अर्थ- -कपाल में वायु दूषित होकर गर्भस्थ बालक के भी देहके वर्ण के सदृश वेदना रहित सूजन को पैदा करदेती है । इसको उपशीर्षक रोग कहते हैं । पटकादि के लक्षण | यथाशेषोदयं ब्रूयात् पिटिकार्बुदविद्रधीन् । अर्थ-पिटका, अर्बुद और विद्रधि इन रोगों में जिस दोष की अधिकता हो उस को उसी दोष से उत्पन्न हुई जानना चाहिये अरूषिका के लक्षण | कपाले लदेबहुलाः पित्तासृक्श्लेष्मजंतुभिः कं सिद्धार्थ कनिभाः पिटिकाः स्युररूषिकाः अर्थ = पित्तरक्त इलेष्मा और कृमिद्वारा कपाल में जो कांगनी और सफेद सरसों के समान क्लेदाधिक्य बाली फुंसियां होजाती है । उनको अरूपिका कहते हैं । ( ८५५ ) दारुणक के लक्षण | कंडूकेशच्युतिस्वाप रौक्ष्यकृत् स्फुटनं त्वः सुसूक्ष्मं कफवाताभ्यां विद्याद्दारुणकं तु तत् अर्थ - कफ और वायु के प्रकोप से और उसमें खुजली, बच्चों का गिरना, मस्तक का चर्म बहुत बारीक २ फटजाता और सुन्नता पैदा होजाती है । इसको. दारुणक रोग कहते हैं । है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रलुप्त के लक्षण | रोमकूपानुगं पित्तं वातेन सह मूर्छितम् । प्रच्यावयति रोमाणि ततः श्लेष्मा सशोणितः रोमकूपान् रुणद्ध्यस्य तेनान्येषामसंभवः ॥ तर्दिद्रलुप्तं रूढ्यां च प्राहुश्चाचेति चापरे । 1 अर्थ - रोमकूपानुगत पित्त वायुके साथ मिलकर सम्पूर्ण रोमों को गिरा देता है । इससे पीछे सरक्त कफ रोमकूपों को रोक देता है । इस लिये इस जगह और रोम उगने नहीं पाते हैं, इस रोग को इन्द्रलुप्त कहते हैं, और चाच भी बोलते हैं खलति के लक्षण | खलतेरपि जन्मैव सदनं तत्र तु क्रमात् ॥ अर्थ - खलित रोग की उत्पत्ति इन्द्रळुतके समानही होती है, इस रोग में वाल धीरे २ गिरते हैं । इन्द्रलुप्त में सहसा गिर पड़ते हैं, इन दोनों रोगों में यही भेद है । वातजखलति । | सावातादग्निदग्धामा पित्तात्स्विन्नशिरावृता कफाद्धनत्वग्वणश्च यथास्वनिर्दिशेत्त्वाच दोषैः सर्वाकृतिः सर्वैरसाध्या सा नखप्रभा दग्धानिनेव निर्लोमा सदाहा या च जायते अथे वात प्रकोप में खलति अग्निदग्ध के समान, पित्त प्रकोष में स्विन्न शिराकृत: तथा कफ प्रकोप में खलित के स्थान की For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy