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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८५४) मष्टांगहृदय । म. २३ शिरानिस्पंदतालस्यरुग्मंदान्हयाधिकानिशि| क्षीणता, रूखापन, सूजन, छिदने और तंद्राशुनाक्षिकूटत्व कर्णकंड्यने वमिः। मिदने कीसी पीडा, दाह, फूटन, दुर्गधि, अर्थ -कफजशिरोभिताप में माथेमें भारा तालु, और मस्तक में खुजली, शोष, प्रमीपन, स्तिमिता, शीतलता, शिगओं का लक, तांबे के से रंगका स्वच्छ नासिका. फडकना, आलस्य, दिनमें दर्दकी कमी, मल, और कर्णनाद । ये सब लक्षण उपरात्रिमें अधिकता,तंद्रा, नेत्रगोलक में सूजन, स्थित होते हैं। तथा कान खुजाने में वमन | ये सब लक्षण सिरकंप के लक्षण । उपस्थित होते हैं । वातोल्बणाः शिरः कंपं तत्संझं कुर्वतेमलाः रक्तजशिरोभिताप । अर्थ-संपूर्ण वाताधिक्य रोगं शिरःकंपरक्तात् पित्ताधिकरुजः नामक रोगको उत्पन्न करते हैं, इसमें सिर ___अर्थ-रक्तज शिरोभितापमें पैत्तिक शिरोभिताप की अपेक्षा वेदना अधिक पित्तप्रधामदोषों के रोग । होती है । पित्तप्रधानताद्यैः शंखे शोफः सशोणितः सानिपातिक शिरोभिताप। तीव्रदाहरुजारागप्रलापज्वर तृड्भ्रमाः १६ सवैस्यात्सर्वलक्षक्षणः। तितास्यः पीतवदनः क्षिप्रकारी सशंखकः अर्थ-सान्निपातिक शिरोभितापमें बाता त्रिरात्राज्जीवितहंतिसिध्यत्यप्याशुसाधित: अर्थ-पित्ताधिक्य तथा रक्तसहित वातादि दिक तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं। सिरमेकीडों का कारण । | दोषों के द्वारा कनपटी में सूजन, तीब्रदाह, संकीण जनैनि क्लेदिते रुधिरामिषे । व्यथा, ललाई, प्रलाप, ज्वर, तृषा, मुखमें कोपिते सन्निपाते च जायते मूर्ध्नि जंतवः | कडवापन, तथा पीलापन होता है । इसको शिरसस्ते पिवतोऽनं घोराः कुर्वति वेदनाः शंखकरोग कहते हैं । यह शीघ्रही पककर चित्तविभ्रंशजननीवरः कासो वलक्षयः१३ सैत्यशोफे व्यवच्छेददाहस्फुटनपूतिताः । तीन दिनमें ही प्राणों को नष्ट करदेता है। कपाले तालु शिरसोः कंडूः शोषप्रमीलका | इसलिये इस रोगीकी चिकित्सा शीघ्र करनी तानच्छसिंघाणकता कर्णनादश्च अंतुजे ।। चाहिये। ___अर्थ-संकीर्ण भोजनों के कारण सिर सूर्यावर्त के लक्षण । तथा रक्त और मांस क्लेदित होजाते हैं और पित्तानुवद्धः शंखाक्षिभूललारेषु मारुतः । वातादि तीनों दोषों के प्रकुपित होजाने के रुजं सस्पंदनां कुर्यादनुसूर्योदयोदयाम् १८ कारण मस्तक में कीडे पड जाते हैं और ये मामध्यान्हविवर्धिष्णुःक्षुद्वतः सा विशेषतः अव्यवस्थितशीतोष्णसुखाशाम्यत्यतःपरम् कीडे सिरके रुधिर को पीते हुए मनको नष्ट सूर्यावर्तः स करनेवाली घोर वेदना को उत्पन्न करदेते ___ इत्युक्ता दश रोगाः शिरोगता। है । क्रिमिज शिरोरोग में ज्वर,खांसी,बलकी | अर्थ-पित्तयुक्त वायु कनपटीं, आंख, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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