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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १२ सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत । (११) सब प्रकुपित दोष अपने २ लक्षणों को । उस ऋतु में बलका आदान काल होने से प्रकाशित करते हैं अर्थात् दोषादिविज्ञानी- अथवा गरमी के कारण से ओपधियां लघु याध्यायमें प्रकुपित दोपों के जो लक्षण कहे और रूक्ष हो जाती हैं तथा वायु भी लघु गये हैं और जो आगे कह जायगे वे सब और रूक्ष गुणवाला है इस्से गरमी में वायु लक्षण उपस्थित हो जाते हैं। स्वास्थ्य जाना का संचय नहीं किन्तु प्रकोप होता है इसी रहता है और सत्र रोग आजाते हैं । जब । तरह वर्षाऋ नुमें जल और औषधियों का विपावातादि दोप अपने स्थान में स्थित रहते हैं । क खट्टा होता है इसलिये वर्षाऋतु में पित्त और किसी कार का कोई रोग उत्पन्न नहीं। का संचय नहीं किन्तु प्रकोप होता है । इसी होता है तब दोप की प्रशमावस्था जाननी तरह शिशिरऋतु में जल और औषध स्निग्ध चाहिये। होते हैं और शीतकाल होता है इससे कफ दोष के संचयादिका काल । का संचय नहीं किन्तु प्रकोप होता है । चयप्रकोपप्रशनावायोर्गीमाविषत्रि॥२॥ इसका समाधान यह है कि प्रमितु में वर्षदिषु तुस्लिखलेनगः शिशिपाइधु ।। अंधियां लघु और रूत होती है और अर्थ--ग्रीधर, वर्ग और शरद इन तीन ऋतु रलका आदानकाल है इस लिये ऋतुओं में कम से वायुका चय प्रकोप और देहभी लघु और रूस होजाती है, इस लधु शान होता है अर्थात प्रीम में वायका चय, वर्षा में प्रकाप और शरद में शपन होता रूक्ष गुणवाला वायु, लघुरूक्ष हुए देहमें स. है। इसी तरह वर्ग शरद और हमंतमें कर मान गुण होने के कारण संचय को प्राप्त होता से पित्त का चम, प्रकोप और शमन होता है, परन्तु ऋतु गरन से प्रकोपको प्राप्त नहीं होता । है। इसी तरह शितिर. वसंत और ग्रीष्ा इसी प्रमाण ते वस्तु में औववी और जल में कफका चय, प्रकोप और शमन होता है । अ. उविपाकी हो जाते हैं और पित्त भी अम्ल दोष संचयका हेतु। घीयते लघुरुक्षामिरोपधीभिः समीरगः।२५॥ रसयुक्त है इसलिये तुल्यगुणयोग में पित्तका तद्विधस्तद्विधे देहे कालस्यौ ण्यान प्रति। संचय होता है किन्तु वर्षाका लकी ठंडक का अद्विरम्हविपासाभिरोषधीभिश्च तादृशम् ।। ण उष्णस्वभाव वाले पितका प्रकोप नहीं वित्तंयाति चषको ग तु कालस्य शैत्यतः । धीयतेनियशीताभिदौमिमिका हो सकता है । तुल्येऽपिकाले देहे चस्कन्नत्वान प्रष्यति। शिशिरकालमें जल और औषधियां स्निग्ध - अर्थ--पिछले श्लोक में जो दोप संचय और शीतलहोजाती हैं तथा देह और कालमी का काल बताया गया है उस में कोई २ स्निग्व और शीत हो जाते हैं इसलिये तुल्य शंका करते हैं कि ग्रीष्ाकाल में जो वायु का गुणयुक्त जल और औषधि सेवनद्वारा तुल्य संचय कहा गपा है वह ठीक नहीं है क्योंकि । गुणवाले देहमें काका सना होता है किन्तु For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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