SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११४) अष्टांगहृदये। अ० १२ शिशिरकालमें गाढापनको प्राप्त हुआ कफ | अलग अलग हेतु, लक्षण और चिकित्सा का प्रकोप को नहीं पाता है । निर्देश करना बड़ा कठिन है इस लिये जो दोषसंचयादि का अन्य कारण। जो साधारण हेतु, लक्षण और चिकित्सा है इति कालस्वभावोऽयंाडारादिवशात्पुनः ॥ उन्हीं का इस जगह वर्णन किया जाता है ! चयादीन्यांतिसघोऽपि दोषाःकालेऽपिवानतु रोग के अन्य हेतु । अर्थ- पूर्वोक्त वातादि दोषों का संचय, दोषाएव हि सर्वेषां रोगाणामेककारणम् । प्रकोप और शमन काल के स्वभाव से होता । यथा पक्षी परिपतन सर्वतःसर्वमप्यहः।३२॥ है परन्तु अन्नपान की सामर्थ्य से दोष काल छायामस्येतिनात्मीयां यथा वारसमप्यदः। की अपेक्षा न करके तत्काल चय, प्रकोप बिकारजातं विविधंत्री गुणानाऽपिवर्तते ॥ और शमन को प्राप्त होनाते हैं इसी तरह तथा स्वधातुवैषम्यनिमित्तमपि सर्वदा । विकारजातंत्रीन्दोवान् तेषां कोपेतु कारणम् ॥ आहार के कारण से संचय, प्रकोप और अर्थरसात्म्यैःसंयोगःकालःकर्म च दुप्कृतम् । शमन के काल भे दोष संचय, प्रकोप और हीनातिमिथ्यायोगेनभिद्यते तत्पुनस्त्रिधा३५ शमन को प्राप्त नहीं होता हैं। इन कारणों ___अर्थ-वातादिक दोष ही संपूर्ण रोगों के से दोषों के चयादि में काल की अपेक्षा मुख्य कारण है । जैसे पक्षी दिनभर सब जगह उडता है पर अपनी छाया का उल्लंआहार प्रधान है। घन नहीं कर सकता है, अथवा जैसे इस दोष की व्याप्ति और निवृति ।। | जगत के स्थावर जंगमादि अनेक प्रकार के ग्यामोति सहसा देहमापादतलमस्तकम् २०। निवर्तते तुफुपितो मलोऽल्पाल्पंजलौघवत् । पदार्थ सत्व, रज, तम इन तीन गुणों का ___ अर्थ- प्रकुपित हुए दोष पांव के तलुए परित्याग नहीं कर सकते इसी तरह धातुकी से सिर की चोटी तक शीघ्र बढ़ते चले जाते विषमता से उत्पन्न हुए रोग किसी तरह से हैं परन्तु घटते समय बहुत धीरे धीरे घटते भी वातादिक तीनों दोप का उल्लंघन नहीं हैं जैसे पानी का चढाब एक दम आता है। कर सकते अर्थात् दाप के संबंध के बिना और घटता धीरे धीरे है। कदाचित् कोई दोष उत्पन्न नहीं होसकता है । दोष कोप के अनन्त हेतु। इन संपूर्ण दोषों के प्रकोप के विषय में | तीन कारण और भी हैं, जैसे (१) असा. मानारूपैरसंख्येयौर्विकारैःकुपितामलाः३०॥ तापयंति तनुंतस्मात्तद्धत्वाकृतिसाधनम् । रम्य इन्द्रियार्थसंयोग (शब्द,स्पर्श, रूप, रस, शक्यं नैकैकशोवक्तुमतःसामान्यमुच्यते३१ गंधादि विषयों का कान, त्वचा, नेत्र, जिव्हा, . अर्थ-संपूर्ण दोष कुपित होकर जिस नासिकादि इन्द्रियों से अनुचित संयोग)। समय अनेक प्रकार के असंख्य रोगों को (२) दुष्ट शीतोष्णवर्षादि काल । ( ३ ) उत्पन्न करके शरीर को कष्ट पहुंचाते हैं उस इस जन्म वा पूर्व जन्म के किये हुए दुष्कृत समय उन असंख्य रोगों में से प्रत्येक के । अर्थात् बुरे कर्म । ये दोष प्रकोप के तीन For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy