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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १२ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (११५) कारण हैं, दापों के प्रकुपित करने वाले इन कालका हीनमिथ्यादियोग । तीन कारणों में से प्रत्येक के हीनयोग, कालस्तु शीतोष्णवर्षभेदात्रिधा मतः ॥३८॥ मिथ्यायोग और अतियोग से तीन तीन भेद सहीनो हीनशीतादिरतियोगोऽतिलक्षणः । मिथ्यायोगस्तु निर्दिष्टो विपरीतस्वलक्षणः। हैं । इस तरह सब मिलाकर दोष प्रकोर के ___ अर्थ-शीत, उष्ण और वर्षा इन तीन नौ कारण हैं। कारणों से काल तीन प्रकार का है । इन में हीन मिथ्यादि योग का स्वरूप । हीनोऽयनेंद्रियस्याऽल्पःसयोगःस्वेननैवया। | से हेमन्त और शिशिर शीतकाल है। वसंत अतियोगोऽतिसससूक्ष्मभासुरभैरवम् ३६। और ग्रीष्म उष्णकाल है । प्रावट ऋतु वर्षा अत्यासाऽतिदूरस्थंविप्रियं विकृतादिच। काल है | जिस काल में सरदी, गरमी वा यदक्षमा वीक्ष्योरूमिथ्यायोगः सदारुणः॥ वर्षा कम होती है उसे उस काल का हीनएवमत्युखत्यादीनिगियानि यथायथम् । विद्यात् योग कहते हैं जिस काल में अतिशय सरदी, अर्थ-जिल इन्द्रिय का जो विषय है उस / गरमी वा वर्ग होती है वह उस काल का का उस से अल्पसंयोग चा सर्वथा संयोग अति योग है । और जिस कालमें सरदी, ही न होना हीनयोग कहलाता है, जैसे गरमी, वा वर्षा अपने धर्म के विपरीति होती कणेन्द्रिय का विषय मुनना है, अगर थोडा है वह कालका मिथ्यायोग है । जैसे हेमन्त सुनाईदे वा सर्वथा सुनाई ही न देतो इस ऋतु में शीत कम हो तो हीनकाल,आधिक हो का नाम हीनयोग हैं अन्यान्य इन्द्रियों के तो अतिकाल और गरमी होतो मिथ्याकाल पक्ष में भी इसी तरह समझ लेना चाहिये। जानना चाहिये । इसी तरह अन्य ऋतुओं जिस इन्द्रिय विषय का अतिसंसर्ग होता का भी जानो। है उसे अतियोग कहते हैं। इसी तरह अति। कर्म का हीनमिथ्यादियोग । सूक्ष्म ( बहुत ही छोटा ) । अत्यन्त चमकीला कायवावित्तभेइन कर्माऽपि विभजेत्रिधा। भयानक, अति पासवाला, अति दूरवाला, कायादिकर्मणा हीनाप्रवृत्तिहीनसंशिका४० अप्रिय, विकृतरूपादियुक्त पदार्थों का देखना अतियोगोऽतिवृत्तिस्तुवेगोदरिणधारणम् । विषमांगक्रियारंभः पतनस्खलनादिकम् ॥ नेत्र इंद्रिय का मिथ्यायोग है । यह मिथ्या भाषणं सामिभुक्तस्य रागद्वेषभयादि च । योग बडा दारुण होता है, क्योंकि इसी से कर्म प्रागातिपातादि दशधायञ्च निंदितम् ॥ तिमिरादि नेत्र रोग पैदा हो जाते हैं । इसी ! मिथ्यायोगःसमस्तोऽसाविहचामुत्रवाकृतम् तरह अत्यन्त उबस्वर, भयानक शब्द, अप्रिय अर्थ-जैसे कालके तीन भेद कहे गये संदेशा आदि सुनना कर्णेन्द्रिय का मिथ्यायोग हैं वैसे ही कर्म भी कायिक, वाचिक और है । अत्यन्त दुर्गधित, अनिष्ट पदार्थो का मानसिक भेदों से तीन प्रकार का है । इन संधना नासिका का अपने विषय क साथ तीन प्रकार के कर्मों की न्यून प्रवृत्ति को मिथ्यायोग है । ऐसे ही और भी जानो। हीनयोग कहते हैं । इन तीनों प्रकार के For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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