SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११६) अष्टांगहृदये। अ०१२ कर्मों की आतिशय प्रबृति उस कर्म का अति- । वासीरं, गुल्म, शेफ, विसर्प,विद्रधि,कुष्ट आ. योग कहलाता है । मलमूत्रादि वेगों का वल- दि रोग उत्पन्न होते हैं । पूर्वक रोकना, वा निकालना, विषमअंग से | कांष्टगत रांग । अर्थात् शरीर को आडा तिरछा करके काम अलः कोष्ठो महास्त्रोत आमपकाशयाश्रयः । करना, गिरना, खिसलपड़ना, ये कायिक तत्स्थानाश्छद्यतीसारकासश्यासोदरज्वराः कर्म का मिथ्यायोग है । खाते खाते बोलना अंतर्भाग च शोपाशीगुल्मवीसर्पविद्रधि । वाचिक कर्म का मिथ्यायोग है | राग, द्वेष __ अर्थ-महास्रोत ( रक्तवाहिनी स्थूल धमनी) आमाशय और पका राय इनतीनों का आश्रय और भयादि ये मानसिक कर्म हैं इन की भत शरीरकं भीतरका भाग कोष्ट कहलाता भी हीन मबत्ति, मिथ्याप्रवृति और अतिप्रवृत्ति होती है । इन सग द्वयादि की अयोग्य रीति है। इनमें होनेवाले बमन, अतिसार, खांसी, से प्रबति होना मिथ्यायोग कहलाता है । श्वास, उदररोग, ज्वर, सूजन, अर्श, गुल्म, तथा दिनचर्याध्यायमें जो प्राणातिपातादि विसर्प, विद्रधि, आदि होते हैं । ये अन्तर भागमें होनेवालेरोग कहलाते हैं । दस अशुभ कर्म कहे गये हैं इनका काया, वाणी और मन के साथ मिथ्यायोग होता मध्यमरोग मार्ग । है । इस मिथ्यायोग में इस लोक और पर शिरोहृदयवस्त्यादिमाण्यस्थ्नांच संधयः।। तन्निबद्धाः शिरास्नायुकंडराद्याश्चमध्यमाः। लोक दोनों के कर्म का समावेश है। रोगमार्गस्थितारतत्र यक्ष्मपक्षवधार्दिताः॥ दोष का निदान । मूर्धादिरोगाः सध्यस्थित्रिकालग्रहादयः । निदानमेतदोषाणांकुपितास्तेन नैक या॥४२॥ अर्थ-मस्तक , हृदय, वत्यादि, मर्मस्थान, फुर्वतिधिविधान्याधीशाखाकोष्टास्थिसंधिषु अस्थिसंधि, तथा उन्हीं अस्थियोंसे मिले हुए __ अर्थ-पूर्वोक्त इन्द्रियार्थ, काल और कर्म शिरा, स्नायु, और कंडरादि ये सब मध्यमका हीन मिथ्यादियोग दोषों के प्रकोप का गमार्ग हैं। इन स्थानोंमें यक्ष्म, पक्षाघात, निदान अर्थात् आदि कारण हैं। इसीनिदान आदित, शिरोरोग, तथा संधि, आस्थ और द्वारा प्रकुपित दोष शाखा, कोष्ट, आस्थ और त्रिकमें शूल और जडता ये रांग होते हैं । संधियों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्नकरतेहैं । वायुके कर्म । वाह्यभागमें होनेवाले रोग। खंसव्यासव्यधस्वापसादरक्तोदभेदनम्४९ शाखार कादयस्वक्च बाह्यरोगायनं हि तत् संगांगभंगसंकोचवतहर्षणतर्षणम् । ताया गपव्यंगगडालज्यर्बुदादयः । कंगपारप्यसौपियशोपस्पंदनबटनम ५०॥ यहिभागाश्च दुनीनगुल्मशोजाइयो गदाः ॥ स्तंभापायरसतावर्णःश्यावोऽरापि वा। अर्थ-रक्तादि छःधातु ओर लचा इनको । धर्माणि वायोः शाखा कहते हैं । ये वाह्यरोगों के स्थान है। अर्थ -स्त्रंस ( हनुआदिसंधियोंका भ्रंश ), इनमें मस्सा, व्यंग, गंड, अलजी, अर्बुद, ब- व्यास (क्षेपक वायुके सदृश भंग प्रत्यंगाका For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy