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सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत ।
( ११७ )
फेंकना ), व्यध ( जैसे कोई मुद्गरों से कूटता | अर्थ-स्निग्धता,कठोरता, खुजली, शीतहो ), स्वाप ( छूनेसे ज्ञान न होना ) , साद लता, भारापन, स्रोतों का रुकजाना, लि( अंगोंमें शिथिलता ),रुक (निरंतर शूलवत् । प्तता, स्तमित्य [ शरीर में जडता ] सूजन वेदना ), तोद ( विच्छिन्न शूलवत् वेदना ), अपरिपाक, अतिनिद्रा, शरीर का रंग सफेद भेद ( विदारणवत् पीडा ), संग [ मलमूत्रका होना, रसमें मीठा और नमकीन स्वादआना बाहर न निकलना ],अंगभंग [ हाथपांवमें टूट काम में बिलंब लगाना ये कफ के कर्म हैं । ने कीसी वेदना ],शिरांदिकोंका संकोच,वर्त इस रीतिसे वातादिक दोषोंके जोलक्षण कहे (मलादिका गोलासाबंधना),हर्पण [रोमांचख गये हैं यही सब रोगों में व्याप्त होतेहैं इस लिये डे होना ,तृपा, कंपन, कर्कशता, अस्थियोंमें * व्याधि की अवस्था और विभाग का जाछिद्र, शोष, फडकन,वेष्टन [ बांधनेकीपीडा] ननेवाला वैद्य रोगो का दर्शन, स्पर्शन और स्तंभ [ वाहु,उरु,जांघकी जडता ],कसला | | प्रश्न इन तीन प्रकार से तथा प्रतिक्षण रोगी स्वाद, काला वा लालवर्ण होना । ये सब वा को देखने से ध्यान लगाकर सब बातों का यु के कर्म हैं।
विचार करै । वायु के कर्म।
रोगी को बार बार देखने का कारण । पित्तस्य दाहरागोष्मपाकिताः॥५१॥ | अभ्यासात्प्राप्यते दृष्टिः कर्मसिद्धिप्रकाशिनी स्वेदः क्लेदःस्वतिः कोथःसदनं मृर्छन मदः। रत्नादिसदसज्ज्ञानं न शास्त्रादेव जायते ॥ कटुकाम्लो रसौ वर्णः पांडुरारुण वर्जितः ॥ ' अर्थ-दाह ( सब अंगों में जलन होना । ___+"व्याधि की अवस्था जाननेवालाराग (ललाई , उष्णता, पाकिता ( अन्नादि वैद्य " इसका यह मतलवहै कि जैसे जैसे का पचना ) पसीना, क्लेद [ रुधिरादि में काल बदलता है वैसेही वैसे रोगकी अव
स्था वदलतीजातीहै जैसे अवस्था बदलती विकार स्राव, कोथ, अवसाद, मूछी, मद
है वैसेही औषध बदलनी पड़ती है। रोग, रस में कडवा खट्टा स्वाद आना,सफेद नये ज्बर का उपचार जुदा है और और लालरंग को छोड कर अनेक प्रकारके । पुराना होने पर उसी ज्वरका उपचार जुदा रंगों का वर्ण । ये सब पित्त के कर्म हैं ।।
। है । इस हेतु से व्याधि की अवस्था जानना
वैद्यके लिये बहुत आवश्यकीय है। .. कफके कर्म ।
___व्याधिविभागने का यह मतलव है कि श्लेष्मणः स्नेहकाठिन्यकंडूशीतत्वगौरवम् । बहुत बार एकही व्याधि में अन्य व्याधियां वंधोपलेपस्तैमित्यशोफापक्त्यतिनिद्रताः ॥ मिलजाती है उस समय उनका विभाग वर्णः श्वेतोरसास्वादुलवणौ चिरकारिता। करके ऐसी चिकित्सा करना कि जिस से हत्यशेगामयव्यावि यदुक्तं दोषल क्षणम् ॥ दूसरी व्याधि के विरुद्धनपडे । अथवा व्यादर्शनाद्यैरवाईततत्सम्यगुपलक्षयत् । धि को अवस्था जानने वाला वैद्य ऐसा भी व्याव्यवस्थाविभागशःपश्यन्नातान्प्राक्षिणम् । अर्थ होता है।
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