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(११२)
अष्टांगहृदये।
तृप्तकरता है उसे तर्पककफ कहते हैं। लने से पित्तका संचय होता है । उष्णादि जो कफ संधि अर्थात् शरीर के जोड़ों में | गुणों के मिलने से पित्त का कोप होता है रहकर उन को एकत्र करके जोडता है उस | और जब शीतगुणयुक्त मंदादि गुण पित्त के को श्लेषक अर्थात् जोड़नेवाला कफ कहतेहैं। तीक्ष्णादि गुणों से मिलते हैं तब पित्त का उपसंहार ।
शमन होता है। इतिप्रायेण दोषाणां स्थानान्यविकृतात्मनाम्
कफका चयकोगादि । व्यापिनामपि जानीयात्कर्माणि चपृथक्पृथक्
शीतेन युक्ता निग्धाद्याकुर्वते श्लप्मणश्चयम् अर्थ-संपूर्ण देह में व्याप्त, विना विकारपाये
उष्णेन कोपं तेनैव गुणा लक्षादयः शमम् । हुए वातादि दोषों के स्थान और उन के
___ अर्थ-जब कफके स्निग्धादि गुण शीतगुकर्म पूर्वोक्त रीति से अलग जानलेने चाहिये णसे मिलते हैं तब कफका चय होता है । जब ये विकारयुक्त हो जाते हैं तब अपने
उष्णगुणसे युक्त होनेपर वेही स्निग्धादिगुण स्थानों से भी विचलित होजाते हैं और इन कफका प्रकोप करते हैं । उसीउष्णके साथ के कर्मों में भी अन्तर आजाता है । यदि रूक्षादि गुण मिले हों तो कफका शम
वायु का चयकोपशमन । न होता है। उष्णेनयुक्ता रूक्षाधावायोः कुर्वतिसंचयम्। चयादि के लक्षण । शीतेन कोपमुष्णेन शमं स्निग्धादयो गुणाः॥
चयो वृद्धिःस्वधाम्म्येव प्रद्वेषो वृद्धिहेतुषु । अर्थ-प्रथमाध्याय में कहे हुए वायुके रू- विपरीतगुणेच्छाच . क्षादि छः गुणों के साथ उनसे विरुद्ध उ
कोपस्तून्मार्गगामिता। ष्णादि मिलते हैं तव वायुका चय होता है
लिंगानां दर्शनं स्वेषामस्वास्थ्यं रोगसंभवः॥ पर कोप नहीं होता क्योंकि वे गुण विरुद्ध | स्वर
| स्वस्थानस्थस्य समता विकारासंभवःशमः। होते हैं । इसी तरह वायुके रूक्षादि गुणोंके
| अर्थ-अपने अपने स्थानोंमें जो दोषों की साथ शीतादि गुण मिलने से वायुका कोप
बृद्धि होती है । उसका नाम चय है । दोष होता है क्योंकि शीतादि की वायुके गुणों के
का चय होनेपर दोषके बढ़ानेवाले हेतुओंसे साथ समानता है । वायुके रूक्षादि गुणों के
विद्वेष और विपरीत गुणोंमें इच्छा होती है, साथ जब उष्ण और स्निग्धादि गुण मिलते
जैसे वायुका चय होनेपर वायुवर्द्धक रूक्षादि हैं तव वायुका शमन होता है क्योंकि ये गुणोंसे विद्वेष और स्निग्धादि बातविपरीत वायुके गुणों से विपरीत हैं।
गुणोंमें अभिलाषा होती है । पित्त और कफ पित्तका चयकोपादि। के विषयमें भी ऐसाही जान लेना चाहिये । शतिन युक्तास्तीक्ष्णाद्याश्चयं पित्तस्य सर्वते। अपने स्थानमें स्थित चयको प्राप्त हुआ दोष उष्णेन कोपं मंदाद्याःशमं शीतोपसंहिताः। । अत्यन्त बृद्धिपाकर उन्मार्गमेंगमनकरै अर्थात्
अर्थ-इसी तरह पित्त के तीक्ष्णादि गुणों | अपने स्थानको छोडकर अन्य स्थानमें गमन के साथ उनसे विरुद्ध शीतादि गुणों के मि- करै उसका नाम प्रकोप है। ..
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