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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० १२ www.kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । ( १११ ) बुद्धिमेधाऽमिमानाद्यैरभिप्रेतार्थसाधनात् ॥ | अपने वीर्य द्वारा पृष्टाधार ( मेरुदंड का - साधकं दृतं पित्तं निम्न स्थान ) का अवलंवन करता है । अर्थात् स्वकर्म करने में उसकी सामर्थ्य की बढाता है । जो कफ खाये हुए अन्न को रख रूप में परिणत करके अपनी सामर्थ्य से हृदय का अवलंबन करता है तथा छाती में रहा हुआही जोकफ शेष बचे हुए स्थानों का अंबुकर्म द्वारा अर्थात् क्लेद श्लेष्मादि रूप जल व्यापार द्वारा अवलंवन करता है अर्थात् अपने २ कर्म करनेमें उनमें सामर्थ्य उत्पादन करता है इसी से इसको अबलंबक कहते हैं । रूपालोचनतःस्मृतम्। दृक्स्थमालोचकं त्वक्स्थं भ्राजकं भ्राजनात्वचः ॥ १४॥ अर्थ- जो पित्त आमाशय में रहता है वह रस को रंगने के कारण रंजक पित्त कहाता है । जो पित्त हृदय में रहता है और बुद्धि, मेधा, अभिमान आदि अभिप्रेत पदार्थ की साधना करता है उसे साधक पित्त कहते हैं । जो पित्त आंख की पुतली में रहता है और लाल, काले, पीले पदार्थों को देखता है उसे आलोचक पित्त कहते हैं । जो पित्त त्वचा में रहता है और त्वचा को दीप्तिमान करता है इस से उसे भ्राजक पित्त कहते हैं यह पित अभ्यंग लेप और परिषेकादि को पचाता है । कफ के भेदादि निरूपण । लेमा तु पंचधा उरःस्थः स त्रिकस्य स्ववीर्यतः । हृदयस्यान्नवीर्याच्च तत्स्थ एवांबुकर्मणा १५। कफघाम्नाच शेषाणां यत्करोत्यवलंबनम् । अतोऽवलंबकः श्लेष्मा यस्त्वामाशयसंस्थितः ॥ २६ ॥ रसबोधनात् । क्लेदकः सोऽन्नसंघातक्लेदनात् बोधको रसनास्थायी तर्पकः * मूल में च शब्द के प्रयोग से यह भी ज्ञात होता है कि अपने वीर्य से भी हृदय का अवलंबन करता है । किन्तु हृदय का जितना अवलंवन अन्नधीयसेकरता है इतना स्ववीर्य से नहीं करता क्योंकि अन्न रस प्रथम हृदयमें स्थित होता है फिर व्यानवायु से चलायमान किया जाकर सब शरीर में जाता है इससे अन्न रस द्वारा ही हृदयका अवलंबन युक्तियुक्त है । कहा भी है:हृदयंमनसः स्थानमोजसाईचतितस्यच । मांसपेशीचयोरक्तपद्भाकारमधोमुखम् ॥ योगिनोयत्र पश्पंतिसम्य गूज्योतिः समाहिताः रसोयः स्वच्छतायातः सतत्रैवावतिष्ठते । इनमें से जो कफ छाती में रहता है और । ततो व्यानेन बिक्षिप्तः कृत्स्नं देहं प्रपद्यते ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिरःसंस्थोक्षतर्पणात् ॥१७॥ संधिसंश्लेषात्श्लेषकःसंधिषु स्थितः। अर्थ - कफ भी पांच प्रकार का होता है, यथा - अवलंबक, क्लेदक, बोधक, तर्पक और श्लेषक | जो आमाशय में रहकर कठिन अन्न के समूह को क्लेदयुक्त करता है । उसे क्लेदक कफ कहते हैं । जो जिव्हा में रहकर खट्टे मीठे आदि र सों का बोध करता है उसे बोधककफ कहते हैं । जो मस्तक में रहकर संपूर्ण इन्द्रियों को 1 For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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