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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११०) अष्टांगहृदये । अ०१२ इनमें से प्राणवायु मस्तक में रहती है और | है, पचाता है और मल मूत्र को जुदे जुदे छाती तथा कण्ठ में घूमा करती है । वुद्धि, ! करके बाहार निकाल देता है । हृदय, इन्द्रिय और चित्त को धारण करती अपान वायु। है । थूकना, छींकना, डकार, निःश्वास और | अपानोऽपामगःश्रोणिबस्तिमे दोरुगोचरः । अन्न को गलेसे पेटमें लेजाना, ये प्राणवाय । शुक्रातेवशकृन्मूत्रगर्भनिष्क्रमणक्रियः॥९॥ के कर्म हैं। _अर्थ- अपानवायु विशेष करके गुदस्थल | में रहताहै । तथापि जंघा, पेटू, मेद, उरू, उदान वायु। आदि स्थानों में फिरता है वीर्य आर्तव उरस्थानमुदानस्य नासानाभिगलांश्चरेत्॥ प्रत मंधी जमल मन तातो वाक्प्रवृत्तिप्रयत्नो बलबर्णस्मृतिक्रियः। । | बाहर निकालना ये इस के कर्म है । अर्थ-उदान बायु का स्थान छाती है, यह नाभि, नाक और गलेमें फिरता है, बोलना, पित्त के भेद । पदार्थो के ग्रहण करने का प्रयत्न, ऊर्जा, पित्तंपंचात्मकं तत्र पकामाशयमध्यगम् । पंचभूतात्मकत्वेऽपियत्तैजसगुणोदयात्१॥ बल, वर्ण, और स्मृतिका वढाना ये सब इस त्यक्तद्रवत्वं पाकादिकर्मणाऽनलशब्दितम् । के कर्म हैं । पचत्यन्नं विभजते सारकिट्टौपृथक् तथा।१२॥ ___ व्यान बायु। | तत्रस्थमेव पित्तानां शेषाणामण्यनुग्रहम् । करोति बलदानेन पाचकं नाम तत्स्मृतम् ।१२। ध्यानो हृदि स्थितः कृत्स्नदहेचारी महाजवः॥ अर्थ-पित्त पांच प्रकार का होता है । इन गत्यपक्षेपणोत्क्षेपनिमेषोन्मेषणादिकाः ।। प्रायःसर्बाःक्रियास्तस्मिन्प्रतिबद्धाःशरीरिणाम् पांच प्रकार के पित्तों में जो आमाशय और अर्थ-न्यानवायु विशेष करके हृदयमें रह पकाशय के बीच में स्थितहै, तथा पंचभूताता है परन्तु यह सब शरीर में फिरता है यह त्मक होनेपर भी आग्नेय गुण की अधिकता अन्य वायुओंकी अपेक्षा शीघ्रगामीहै । गमन, के कारण अपने पतलेपनको छोड़कर अर्थात् उत्क्षेपण ( ऊपर जाना ) अपक्षेपण ( नीचे गाढ़ा होकर पाकदाहादि करने के कारण फेंकना,) निमेष ( आंख बन्द करना, ) इसे अग्नि नाम से बोलते हैं । यह अन्न को उन्मेष ( आंख खोलना ) आदि मनुष्य की | पचाताहै, यह साररूप पदार्थ और मलरूप सबही क्रिया प्रायः यही वायु करताहै ।। पदार्थ को जुदा जुदा करताहै । तथा पक्वासमान वायु। शय और आमाशय के बीच में रहता हुआ समानोऽग्निसमीपस्थाकोष्ठे चरति सर्वतः। अन्य रंजकादि पित्तोंको बलिष्ठ करनेमें बड़ा अन्नग्रहणाति पचतिविवेचयति मुंचति ॥८॥ उपकार करता है, इन्हीं कारणों से इसका अर्थ-समान वायु पाचक अग्नि के पास | नाम पाचक है। रहता है और सम्पूर्ण कोठे में फिरता है। रंजकादि पित्त । यह वायु आमाशय में अन्न को धारण रखता | आमाशयाश्रय पित्तंरंजकं रसरंजनात्। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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