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अष्टांगहृदये।
(२१६)
शस्त्रोंके पकडने की विधि | छेदभेदन लेख्यार्थ शस्त्रं वृतफलांतरे ३० तर्जनी मध्यमांगुष्ठैर्गुह्यात्सुसमाहितः । विस्रावणानि वृंताग्रे तर्जन्यंगुष्ठकेन च । ३१ । तलप्रच्छन्नवृत्तानं ग्राह्यं ब्रीहिमुखं मुखे । मूलेष्वाहरणार्थे तु क्रियासौकर्यतोऽपरम्
अर्थ - छेदन, भेदन और लेखनकर्म के लिये बेटे और फलके लिये बीच में तर्जनी, मध्यमा और अंगूठे इन तीन उंगलियों से शस्त्रको पकडना चाहिये, परन्तु शस्त्र कर्म करने के समय सब ओर से ध्यान खींचकर इसमें लगाना चाहिये विस्रावण के लिये शरारीमुखादि शस्त्रों को बेंटेके अप्रभाग में तर्जनी और अंगूठा इन दो उंगलियों से पकडे । ब्रीहिमुख शस्त्र के बेंटेके अग्रभाग को हथेली में छिपाकर उसको मुखके पास प asar काम लावै । सब प्रकार के आहरण यंत्र मूलमें पकडकर उपयोग में लाये जाते हैं इसी तरह अन्य शस्त्रों को भी प्रयोजन के अनुसार यथोपयुक्त स्थानों में पकडकर का म में लाना चाहिये |
शस्त्रकोश |
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अ० २९
आदि वस्त्र बिछादिये गये हों । इनमें सब प्रकार के शस्त्रों का संचय होना चाहिये |
जलौका का विधान |
जलौकस स्तु सुखिनां रक्तस्त्रावाय योजयेत् ॥
अर्थ- सुखोचित ( राजा, रईस, बालक, वृद्ध, सकुमार ) स्त्री पुरुषों का रक्त निकाल ने के लिये जोकका प्रयोग करना उचित है सविषा जोक |
दुष्टांबुमत्स्य भेकाहिशवको थमलोद्भवाः । रक्ताःश्वेताभृशंकृष्णश्चपलाःस्थूल पिच्छिलाः इंद्रायुधविचित्रोर्ध्व राजयो रोमशाश्च ताः । विषा वर्जयेत् -
ताभिः कण्डूपाकज्वरभ्रमाः ॥ ३७ ॥ विषपित्तास्रनुत्कार्य तत्र
अर्थ-- जोक दो प्रकार की होती हैं । ए क सविषा, दूसरी निर्विषा । सविषा जोक बि गडे हुए पानी तथा मछली, मेंढक, सर्प और मुर्दों के मलमुत्रादि से उत्पन्न होती है। इनका रंग लाल, सफेद, अत्यन्त काला, इंद्र धनुषके समान अनेक वर्णवाला होता है ॥ इनके ऊपर खडी रेखायें होती हैं तथा ये रोमयुक्त भी होती है | इन लक्षणों से युक्त तथा चपल, स्थूल और पिच्छिल जोक सविषा होती हैं इनको न लगाना चाहिये, इन
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स्यानवांगुलविस्तारः सुघनो द्वादशांगुलः । क्षौमपत्रोर्णकौशेयदुकूल मृदुचर्मजः ॥ ३३ ॥ विन्यस्तपाशः सुस्यूतः सांतरोर्णास्थशस्त्रकः । शलाकापिहितास्यश्च शस्त्रकोशः सुसंचयः । अर्थ-शस्त्रों के रखने के लिये नौ अंगुल • चौडा और बारह अंगुल लंबा कोश रेशमी वस्त्र, पत्ता, ऊन, कौषेय या कोमल चमडे का बनवाना चाहिये कोश के भीतर शस्त्रों के रखने के लिये जुदे जुड़े सुंदर शस्त्रानुरूप घर (खाने ) बनवाने चाहियें जिनमें ऊन
के लगाने से खुजली, पाक, ज्वर, भ्रम, तथा दाह, शोष और मूर्च्छादिक रोग उत्पन्न होते हैं । यदि भ्रमसे प्रयोग किया जाय तो विष रक्त, और पित्तनाशक क्रियाका प्रयोग कर ना उचित है ॥
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निर्विष जोक | शुद्धांबुजापुनः ।