SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २६ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ! निर्विषाः शैवलश्यावा वृत्तानीलोर्ध्वराजयः ] थवा किसी शस्त्र से थोड़ा सा रक्त निकाकषायपृष्ठास्तन्वंग्यः किंचित्पीतोदराश्च याः ल दे । जब पीती हुई जोक कंधे ऊंचे - अर्थ-निर्विष जोक निर्मल जल में पैदा | करने लगे तब जान लेना चाहिये कि होती है इनका शैबाल ( सिवार) के सदृश रुधिर को पी रही है । मक्खी आदि को श्याववर्ण होता है ये गोलाकार, नीलबर्ण निवारण करने के लिये जोकपर बहुत पतला और ऊर्धरेखाओं से युक्त होती हैं । वटवृक्ष वस्त्र ढक देना चाहिये। के सदृश रंगवाली पीठ, पतली देह और पेट में कुछ पीलाई होती है । .. जोकका स्वभाव । - त्यागनेयोग्य जोक । संपृक्ताद्दुष्टशुद्धास्राज्जलौका दुष्टशोणितम् आदत्ते प्रथमं हंसः क्षीरं क्षीरोदकादिव। ताअप्यसम्यग्वमनात्प्रततं च निपातनात् । ____ अर्थ-दूषित और शुद्ध मिले हुए रक्त सीदंतीःसलिलं प्राप्य रक्तमत्ता इतित्यजेत् । को पान करते समय जोक पहिले बिगड़े - अर्थ-केवल सविष जोकही त्यागनी नहीं । चाहिये, किन्तु रक्तमत्ता निर्विष जोक भी हुए रुधिर को ही पाती है जैसे हंस जल त्याग देनी चाहिये, रक्तमत्ता में हेतु हैं, | मिले हुए दूध में से प्रथम दूध को ही एक तो वे दुष्ट रक्तका अच्छी तरह वमन पीता है। नहीं करती हैं । और लगने पर निरंतर जोकका बमन बिधान । दुष्ट रक्तका पान किये चली जाती हैं इन | दंशस्य तोदे कंड्वावा मोक्षयेद्वामयेच्च ताम् | पटुतैलाक्तवदनां श्लक्ष्णकंडनरूक्षिताम् । . सब रक्तपूर्ण निर्विष जोकों को त्याग देना रक्षनरक्तमदादूभूयः सप्ताह तान पातयेत्x चाहिये । इनकी पहचान यह है कि जल | पूर्ववत् पटुतादाढथै सम्यग्वांते जलौकसाम् के पात्र में डालने पर ये सुस्त और शि- | क्लमोऽतियोगान्मृत्यु - थिल हो जाती हैं। दुर्वाते स्तब्धता मदः॥४६॥ जोको लगाने का नियम । अर्थ-जब जोक के दंश की जगह में अथेतरा निशाकल्फयुक्तऽभसि परिप्लताः॥ तोद वा खुजली हो तो जोकको छुडा देना अवंतिसोमे तके वा पुनश्चाऽश्वासिता जले। चाहिये यदि रक्तपान की लोलुपता से न लागयेद्धृतमृत्सांगशस्त्ररक्तनिपातनैः ॥ छोडे तो हलदी और नमक पीसकर उसके पिबंतीरुन्नतस्कंधाश्छादयेन्मृदुवाससा ।। मुखपर बुरकते ही छोड देती है । छोडने पर ___ अर्थ-पूर्वोक्त रीति से परीक्षा करने के पीछे निर्विष जलौका को हल्दी के कल्क ___+ गुल्माशे विद्रधी कुष्ठ वातरक्त गला से युक्त जल में, अथवा कांजी वा तक में | मयान् । नेत्ररुग् विषबीसर्पान् शमयंति जपरिप्लुत करके निर्मल जल में आश्वासित लौकसः । अर्थात् जोक गुल्म, अर्श, विद्रधि करके उत्साहित करै । और जिस स्थान कुष्ठ, वातरक्त, कंठरोग, नेत्रपीडा, विष, वि सादि रोगोंको नाश करती है । यह श्लोक पर लगानी हो वहां थोड़ा घी चुपड दे अ. | प्रक्षिप्त है। २८ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy