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(२१८)
.. अष्टांगहृदये।
म०२६
सेंधा नमक और तेल से रूक्षित तथा सूक्ष्म अशुद्ध रक्त का फिर निकालना। तंडुलचूर्ण द्वारा रूक्षित करके हाथसे निचो | अशुद्धं चलितं स्थानास्थितं रक्तंव्रणाशये। डदे । इस तरह रक्कमद से जोक की रक्षा अम्लीभवेत्पर्युपितं तस्मात्तस्रावयेत्पुनः। करे । सात दिन तक किसी रोगीके उसको
___अर्थ-अशुद्धरक्त अपने स्थान से चल न लगावे । सम्यक्युक्त वमन होने पर यह
कर व्रण के स्थान पर आजाता है और पूर्ववत् पट और दृढ होजाती है। अतियोग वहां एक दिन रहकर खट्टा हो जाता है । होने से क्लान्ति और मृत्यु होजाती है.दा- | इस लिये इसको फिर निकाल देना त में स्तब्धता और मद होता है ।
चाहिये। जोकोंका अनेकपात्रोंमें रखना।।
अलावु और घटिका पत्रका प्रयोग ।
| युज्यानालाबुघटिका रक्त पित्तेनदृषिते ४८॥ अन्यत्राऽन्यत्रताःस्थाप्याघटेमृत्नांबुगर्भिणि तासामनलसंयोगात्लालादिकोऽथनाशार्थसविषाास्युस्तदन्वयात
युज्याच्च कफवायुना। अर्थ-लालास्रावादि क्लेदताको दूरकर- अर्थ-पित्तसे दूषित रक्तमें दुष्टरक्त को ने के लिये जोकों को मिट्टी के जुदे जुदे । निकालने के लिये अलाब और घटिका यंत्र पात्रों में तीन वा पांच दिनके अंतर से च
का प्रयोग न करे । क्योंकि इन यंत्रोंमें अदलतारहै । क्योंकि लगातार एक ही पात्र | ग्नि का संयोग होने से ये पित्तरक्त को कुमें रखने से लालादि के संसर्ग से निर्बिष । पित करते हैं | परन्तु कफवात से दूषित जोकभी सविष होजाती हैं। | होने पर इन यत्रोंका प्रयोग उचित ही है । ____ अशुद्ध रक्तमें कर्तव्य ।
शंगका प्रयोग। अशुद्धौनावयेइंशान हरिद्रागुडमाक्षिकैः । कफेन दुष्टरुधिरंन शंगेण विनिर्हरेत् ५०॥ शतधौताज्यापचवस्ततोलेपाश्चशीतलाः॥ | स्कन्नत्वाद्हुष्टरक्तापगमनात्सद्यो रोगरुजां शमः।
वातपित्ताभ्यां दुष्टं शूगेण निर्हरेत् । अर्थ-जो जोकके दंशस्थानों से अशुद्ध । अर्थ-कफसे दूषित रुधिर को सींगी से रक्त निकलता दिखाई दे तो दंशस्थान पर
न निकाले । क्योंकि कफदूषित रुधिर गाढा हलदी, गुड और शहत लगाकर स्रावकरावै होजाता है और सींगी में अग्नि का संयोग तदनंतर सौ बार धुले हुए घीको रुईके फोहे
न होनेसे कफको नहीं पिघला सकता है । पर छगाकर उसके ऊपर रखदे तथा मुन्ल
प्रच्छान विधि । हटी, चन्दन और खस आदि शीतल द्रव्यों
गात्रंबवोपरि दृढं रज्ज्वापट्टेन वासमम् ॥ का लेपकरदे । विगडे हुए रुधिरके निकल
| स्वायुसंध्यस्थिमर्माणित्यजन्प्रच्छानमाचरेत् जाने पर तत्काल रोगों की वेदना शांत हो
अधोदेशप्रविसृतैः पदैरुपरिगामिभिः ५२॥
न गाढधनतिर्यग्भिर्न पदे पदमाचरन् । जाती है तथा सूजन, शिथिलता और दरद
प्रच्छानेनैकदेशस्थं ग्रंथितं जलजन्मभिः ॥ भी जाता रहता है।
हरेच्छंगादिभिः सुप्तमसग्व्यापि शिराव्यधैः
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