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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० २७ www.kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाकासमेत । अर्थ - पछने लगाने की जगह को दृढ डोर वा पट्टीसे कसकर बांधदे और नीचे ऊ पर की ओर शस्त्रपद द्वारा स्नायु, संधि, अस्थि और मर्म इनको बचाता हुआ प्रच्छान करे प्रच्छान की यह रीति है कि न गाढा, न पैना, न तिरछा शस्त्र चलावै और जहां एक बार शस्त्र लग गया है वहां दूसरी बार न लगे | एक देशस्थ रक्त प्रच्छान से, प्रान्थ और अर्वुदका रक्त जोकों से, सुप्तस्थान का रुधिर सींगी से और सर्वशरीर व्यापी रुधिर को शिराव्यध द्वारा निकाले । प्रच्छानादि के अन्य प्रयोग | प्रच्छानं पिंडिते वा स्यात् अवगाढे जलौकसः ॥ ५४ ॥ त्वकस्थेऽलाबुघटी गम् शिरैव व्यापकेऽसृजि । वातादिधाम वा शुंग जलौकालावुभिः क्रमात् अर्थ - पंडित रुधिर में प्रच्छान, अवगाढ रुधिर में जोक, त्वचा में स्थित रुधिर में अलाबु, घटिका और सींगी और सर्वशरीर व्यापी रुधिर में शिराव्यध का प्रयोग करना उचित है । अथवा वातस्थान में स्थित रुधिर को सींगी से, पित्त स्थान में स्थित रुधिर को जोक से और कफस्थान में स्थित रुको अलाव से निकाले । गरम घृतका सेचन | स्रुतासृजः प्रदेहाद्यैः शीतैः स्याद्वायुकोपतः । सतोदकंडूशोकस्तं सर्पिपोष्णेन सेचयेत् ॥ अर्थ- जिसका रुधिर निकाला गया है, उसके शीतल लेपों का करना उचित नहीं - है, क्योंकि शीतल लेपों से वायु कुपित Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१९ ) होकर तोद और खुजली से युक्त सूजन को उत्पन्न कर देती है, इस सूजन पर गरमं घी डालना उचित है । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां षड्विंशोऽध्यायः । सप्तर्विशोऽध्यायः । अथाऽतःसिराव्यधविधिमध्यायंव्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहां से सिराव्यधविधि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे । शुद्ध लोहित का स्वरूप | मधुरं लवणं किंचिदशीतोष्णम संहतम् । पद्मद्रगोप मावि शश लोहितलोहितम् । लोहितं प्रवदेच्छुद्धं तनो स्तेनैव च स्थितिः । अर्थ- जो रक्त मधुर, कुछ नमकीनरस युक्त, कुछ कालापन लिये, छूने में गरम, पतला, लालकमल वा इन्द्रगोप ( बीरबहुट्टी ) के समान लाल वर्ण, हेमवत् खरगोश के रुधिर के समान लालरंग का रुधिर शुद्ध होता है, इस रुधिर से देहकी स्थिति है । दूषित रुधिर के बिकार । तपित्तश्लेष्मलैः प्रायो दूप्यते कुरुते ततः ॥ २ ॥ विसर्पविधिहगुल्माऽग्निसदनज्वरान् । सुखनेत्रशिरोरोगमदतृड्लवणास्यताः ॥ ३॥ कुष्टवाताऽस्रपित्तास्रकट्वम्लोगीरणभ्रमान्। शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैरुपत्रांताश्च ये गदाः। सम्यक्साध्यान सिध्यतिते चरक्तप्रकोपजाः तेषु स्त्रावयितुं रक्तमुद्रिक्तं व्यधयेत्सिराम् । ५ अर्थ - यह शुद्ध रुधिर प्रायः पित्त और For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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