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(२२०)
अष्टोनहृदये।
अ० २७
कफकारी पदार्थो से दूषित होजाता है और का सिराव्यध न करै । तथा जो सिरा न दूषित होकर विसर्प, विद्रधि, प्लीहा, गुल्म, | बांधी गई हो,टेढी हो वा उठी न हो इस अग्निमांद्य, ज्वर, मुखरोग, नेत्ररोग, शिरो | को न वेधे। तथा अत्यन्त जाड़े में वा अवेदना, मद, तृष्णा, लवणास्यता ( मुख में त्यन्त गर्मी में वा जिस दिन प्रचंड पवन 'नमकसा घुलना ), कुष्ठ, वातरक्त, रक्तपित्त, | चल रही हो, वा जिस दिन बादलों ने कड़वी और खट्टी डकार, और भ्रम इन आकाश ढक रक्खाहो ऐसे दिनों में सिरारोगों को उत्पन्न करता है इनके सिवाय व्यध न करै । किन्तु यदि कोई भयंकर जो रोग शीत उष्ण, स्निग्ध और रूक्षादि रोग होगया हो और फस्द खोलने की द्वारा सम्यक् चिकित्सित रोग साध्य होने आवश्यकता ही होतो शीत प्रीष्म और वर्षा पर भी अच्छे नहीं होते हैं वे रुधिर के आदि का सुप्रबंध करके सिराव्यध करना कोपसे उत्पन्न हुए समझने चाहिये । उचित है।
इसलिये इन सब रोगों में बढेहुए रुधिर रोगविशेष में शिराविशेषकावेधन। को निकालने के लिये सिराव्यध अर्थात् | शिरोनेत्रविकारेषु ललाट्यां मोक्षयसिराम फस्द खोलना चाहिये ।
| अपांग्यामुपनास्यांवा कर्णरोगेषु कर्णजाम्।
नासारोगेषु नासाने स्थिताम्सिराव्यधका निषेध ।
नासाललाटयो ॥ १० ॥ न तूनषोडशाऽतीतसप्तत्यब्दसतारजाम् ॥ पानसे मुखरोगेषु जिह्वौष्टहनुतालुगाः ।' अस्निग्धास्वेदितात्यर्थस्वादिताानेलरोगेणाम् जय ग्राथेषु ग्रीवाकर्णशखशिरःनिताः ॥ गर्भिणीसूतिकाजीर्णपित्तास्त्रश्वासकासिनाम् उरोऽपांगललाटस्था उन्माउ.. अतीसारोदरच्छर्दिपांडुसबांगशोकिनाम ॥ स्नेहपीते प्रयुक्तेषु तथा पञ्चसु कर्मसु ।
अस्मृतौ पुनः । नायंत्रितांसिरांविध्येन तिर्यजाण्यनुत्थिताम् ।
हनुसंधौसमस्ते वासिरांभ्रमध्यगामिनीम् ॥ नातिशीतोष्णबाताभ्रष्वन्यत्राऽत्ययिकाङ्गदात्
| विद्रधौ पार्श्वशूले च पार्श्वकक्षास्तनांतरे । अर्थ-सोलह वर्ष से कम और सत्तर
तृतीयकेंऽसयोर्मध्ये
स्कधस्याधश्चतुर्थके ॥ १३॥ वर्ष से ऊंची अवस्थाबाला, जिसका रुधिर
| प्रवाहिकायांशूलिन्यांश्रोणितोद्वथंगुलेस्थितार निकाला गया है, आस्निग्ध, अस्वेदित, अ- शुक्रमेढ़मये मेढ़ेतिस्वेदित, वातरोगी, गर्भिणी, प्रसूती अ.
ऊरुणांगलंगडयोः ॥ १४ ॥ जीर्णरोगी, रक्तपित्तरोगी, श्वास, खांसी, इंद्रबस्तेरधोऽपच्यां यंगुले बतुरंगुले १५ ॥
| गृधूस्यां जानुनधिस्तादूर्व वा चतुरंगुले । अतिसार, उदराविकार, वमन, पांडुरोग, ऊर्ध्वगुल्फस्य सक्थ्यौतथा कोप्टुकशर्षिके सर्वांगशोफ इन रोगोंसे आक्रान्त तथा जि. पाददाहे खुडे हर्षे विपाद्या वातकंटके॥ १६ ॥ सने स्नेहपान किया हो, तथा जिसने वमने विप्पे च द्यगुले विध्ये दुपरि झिमर्मणः। विरेचनादि पंच कर्म किये हों ऐसे रोगियों
गृध्रस्यामिव विश्वाच्याम् यथोक्तानामदर्शने मर्महीने यथासन्ने देशेऽन्यांव्यधयत् सिराम्
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