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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २७ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । [२२१ अर्थ-सिरदर्द और नेत्ररोग में ललाट | न देने पर व्याधि के अनुसार मर्म स्थान की अथवा अपांग वा नासिका के समीप / को छोडकर पासवाली जगह में दूसरी नस वाली रग की फस्द खोले । कर्णरोग में | की फस्द खोले । कान की, नासाराग में नासिका के अग्रभा- सिराब्यध के पहिले का कर्तव्य । ग की, पीनस में नासिका और ललाटकी, अथ निग्धतनुः सज्जसर्वोपकरणो बली ॥ मुखरोग में जिव्हा, ओष्ट, ठोडी और तालु कृतस्वस्त्ययनः स्निग्धरसानप्रतिभोजितः। की, जत्रु से ऊपर वाली गांठ में प्रीवा, आग्नितापातपस्विनो जानूच्चासनसंस्थितः कान, कनपटी और ललाटकी, उन्मादरोग मृदुपट्टात्तकेशांतो जानुस्थापित कूर्परः । मुष्टिभ्यां वस्त्रगर्भाभ्यांमन्ये गाढंनिपीडयेत् में वक्षःस्थल अपांग और ललाटकी रग की। दंतप्रपीडनोकासगंडाऽऽध्मानानिचाऽचरेत् फस्द खोले, इसी तरह अपस्मार रोग में पृष्ठतो यत्रयञ्चनं बस्त्रमाबेष्टयेन्नरः॥ हनुसंधि वा समस्तहनु वा भकटियों के कंधरायां परिक्षिप्य न्यस्यांतर्वामतर्जनीम्। बीचवाली नस की, विद्रधि और पसली के | एका एषोऽतर्मुखबर्जानां सिराणां यंत्रणे विधिः । रोग में पसली, कूख वा स्तनों के बीचवा- अर्थ-रोगी स्निग्धदेह, सब प्रकार के ली नस की. ततीयक ज्वर में कंधोंकी सं- वस्त्र पीड पादक स्नेह गेरू आदि उपकर. धियों की नस की, चौथैया ज्वर में कंधेके । णों से सज्जित, बली ( मोटा ताजी ), नीचेवाली सिराकी फस्द खोले । शूलयुक्त कृत्स्वस्त्यपन ( बलि मंगल होमादिक किया, प्रवाहिका में कमर से दो अंगुल के अंतरपर | हुआ ), स्निग्ध मांस रस अन्नादि का स्थित नसको बेधे । शुक्र और मेट्ररोगों मेढ़ । भोजन किया हुआ, अग्नि और धृपकी की सिरा, गलगंड और गंडमाला रोग में गर्मी से स्वेदित, और जानुके बरावर ऊंचे ऊरुकी, सिरा, गृधूसीरोग में जानु से चार | आसन पर बैठा हुआ, वस्त्रकी कोमल पट्टी अंगुल नीचे वा ऊपरवाली सिरा, अपची | से मस्तक के केशपर्य्यन्त भाग तक बांधकर रोगं में जंघाओं के बीच में स्थित मर्मस्थान | जानुके ऊपर कोहनी रखकर वस्त्र गर्भित की दो अंगुल नीचे फस्द खोले । सक्थिरो मुष्टियों द्वारा दोनों मन्याओं को अतिशय ग में तथा कोष्टुकशीर्षरोगमें गुल्फ के चार | पीडित करे, तथा दंतप्रपीडन, उत्कास, अंगुल ऊपरवाली सिरा, पाददाह, खुडबात और गंडस्फीति कर, तदनंतर रोगी की पादहर्ष, विबाई, वातकंटक, और चिप्परोग पीठ पर इसतरह वस्त्र लपेटे कि ग्रीबा से में क्षिप्रनामक सक्थि मर्मके दो अंगुल ऊ आरंभ करके बीच बीच में बांई तर्जनी को परवाली सिरा, विश्वाचीरोग में गवसी की । स्थापित करके दाहिने हाथ से बांधता रहे तरह जानुके चार अंगुल नीचे वाली सिरा | अर्थात् तर्जनी अंगुली के समान अंतर दे दे का बेधन करै । उक्त सिराओं के दिखाई । कर वस्त्र लपेट देवै । अन्तर्मुख शिरा के For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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