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अष्टांगहृदये।
म. १५
सेवन करना और गहरीनींदमें अधिक साना | भेदी आदि भेदोंके अनुसार होने परभी संत इनसे मनुष्य शूकर की तरह फूलता चला | र्पण और अपतर्पणरूप दो प्रकारकी चिकिजाता है।
त्साका उल्लंघन नही करती है अर्थात् अने मांसखानेसे स्थूलता। क प्रकारके रोग होने परभी चिकित्सा दाही नहि मांससमं किंचिदन्यदेहबृहत्यकृत् । ।
प्रकार की होती है। मांसादमासं मांसेन संभृतत्वाद्विशेषतः ३५
इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकाया अर्थ-देहको पुष्ट करनेवाले पदार्थों में
चतुर्दशोऽध्यायः। मांसके समान दूसरा कुछ नहीं है । विशेष करके मांस खानेबालों का मांस अत्यन्त पुष्टिकारक होता है, क्योंकि वे मांस द्वारा ही पंचदशोऽध्यायः। पुष्ट होते हैं ।
स्थूलकृशफी सामान्य चिकित्सा। अथाऽतः शोधनादिगणसंग्रहमध्यायं गुरु चाऽतर्पणं स्थूले विपरीतं हितं कृशे ।
व्याख्यास्यामः। यवगोधूममुभयोस्तद्योग्याहितकल्पनमू३६।
अर्थ-अब हम यहां से शोधनादि गण - अर्थ-स्थूल मनुष्यके लिये भारी और
संग्रह अध्याय की व्याख्या करेंगे। अपतर्पण, तथा कृशके लिये लघु और संतर्पण हितकारी हैं | जौ और गेंहूं यदि
वमनकारक द्रव्य ।
" मदनमधुकलंबानिर्विबीविशाला। स्थूल और कृश दोनों के उपयोगी द्रव्यों के
पुसकुटजमूर्वादेवदालीकृमिघ्नम् । संयोग और पाकादि विशेष द्वारा तयार कि
विदुलदहनचित्राः कोशवत्यौ करंजः ये जाय तो स्थूल और कृश दोनों के लिये कणलवणवैचलासर्षपाश्छर्दनानि ॥१॥ हितकारी होसकते हैं । अर्थात् संस्कार किये अर्थ- मैनफल, मुलहटी, तूंवी, नीम, हुए जौ स्थूलके लिये और संस्कार किये हुए विबी ( कंदूरी), इन्द्रायण कटु खीरा, गेंहूं कृशक लिये उपयोगी होते हैं । कुडा, मरोड़फली, देवदाली, वायविडंग,
चिकित्साको द्विविध्वत्व । जलवेत, चीता, मूषकपी दोनों प्रकारकी दोषगत्याऽतिरिच्यते ग्राहिभेद्यादिभेदतः। तोरई, कंजा, पीपल, सेंधानमक, वच, इलाउपक्रमान ते द्वित्याद्भिन्ना अपि गदा इव,३७ यची और सरसों ये सब वमनकारक औष
अर्थ-सब प्रकारके रोग बातादि दोषों हैं। इनमें से मैनफल. इन्द्रायण, कटुखीरा के कारण अनेक प्रकारकं होने परभी वृंहण इन्द्रजौ, बायविडंग, इलायची और सरसों लंघन साध्यत्व वा सामत्व और निरामत्व को इनके फल बमनकारक होते हैं । मुलहटी नहीं छोडते हैं वैसे ही सब प्रकार की चि- जलवेत, मूषकपणी, दंती, और बच, इन कित्सा भी दोषकी गति तथा ग्राही और की जड़, लोध, सुवर्णक्षीरी और कंपिल्ल,
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