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अ० १४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
और स्वर इनका क्षय होजाता है । वस्ति, अर्थ-क्योंक मधुर और स्निग्ध पदाहृदय, मस्तक, जंघा, उरू, त्रिक ( मेरुदंड- र्थो के सेवन करने से कृशता सहज ही में का नीचे का भाग ), पसलियों में दर्द,ज्वर | दूर हो जाती है, और अति विपरीत सेवन प्रलाप, डकार आदि ऊपर जानेवाली वायु, द्वारा अर्थात् कटु, तिक्त, और कषाय रसों ग्लानि, वमन, हाथपांव के जोड़ों और ह- का अत्यन्त सेवन करने पर बडी कठिनता डियों में टटनेकी सी वेदना होने लगतीहै। से स्थूलता का नाश होता है इस लिये तथा मलमूत्रादिका विवंध ऐसे अनेक प्रकार | स्थूलता की अपेक्षा कृशता अच्छी होती है के रोग उत्पन्न होजाते है। स्थूल और कृश इन दोनों मनुष्यों को यदि - कृशता को श्रेष्टत्व । वृंहण औषधों से साध्य समान व्याधि हों कायमेव बरं स्थौल्यात्
तो स्थूल मनुष्य की वही ब्याधि बड़ी कनहि स्थूलस्य भेषजम्॥३१॥
ठिनता से दूर होती है, कारण स्थूल मनुबृहणं लंघनं नालमतिमदोऽग्निवातजित् ।
ष्य के लिये जो वृंहण औषधियां उपयोगी ___ अर्थ-स्थूलता की अपेक्षा कशता अ
नहीं होती हैं वे पहिले दिखा चुके हैं किन्तु च्छी होती है, इसका कारण यह है कि
कृश मनुष्य की वही व्याधि सहज ही में स्थूल मनुष्य की औषध नहीं होती, न तो
दूर होजाती है, कारण यही है कि वृंहण वृंहण, न लंघन किसी प्रकार की औधष
ही कृश के लिये हितकारी है। इसको लंउसकी स्थूलता को दूर करकसती है, इसका कारण यही है कि मेदा, अग्नि और पवन
घनसाध्य विसूचिकादि रोग होने पर भी नाश करनेवाली औषध ही स्थूल मनुष्य के
वही रोग स्थूल व्यक्ति के पक्ष में कष्टसाध्य लिये उपयोगी होती हैं, जो मेदा का नाश
होता है, कारण कि लंघन भी स्थूल व्याक्ति करती हैं वेही अग्निवईक और वातनाशक
के अनुकूल नहीं होता है, किन्तु अवरुद्ध हैं । वृंहण औषध द्वारा स्थूल मनुष्य का मेदा
चिकित्सा होने से लंघन द्वारा कृश व्याक्ति
| का वही विसूचिकादि सहज में मिट और भी बढता है, और लंघनद्वारा यद्यपि
जाता है। मेदा का क्षय होता है परन्तु अग्नि और
कृशकी औषध ।। वायुकी वृद्धि होती है । अतएव मांस और
योजयेबृहणं तत्र सर्वपानान्नभेषजम् ॥३३॥ दुग्धादि वृंहण और कोदों, सोंखिया आदि अचिंतया हर्षणेन धुवं संतपणेन च । लंघन द्रव्यों में से कोई भी स्थल मनुष्य के | स्वप्नसंगाश्च कृशो वराह इव पुष्यति ॥३४॥ लिये उपयोगी नहीं है।
___ अर्थ- कृशता, सब प्रकारके वृंहणकर्ता . दूसरा कारण ।
अन्नपान और औषधोंका प्रयोग करना चा मधुरस्निग्धसौहित्यैर्यत्सौख्येन विनश्यति३२ / हिय । किसी प्रकारकी चिन्ता न करना । क्रीशमा स्थविमाऽत्यंतविपरीतनिषेवणैः। मनको प्रसन्न रखना, पुष्टिकारक आहारादि
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