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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदये । ( १३४ ) और अतिदारुण कुष्टादिरोग उत्पन्न होते हैं । अतिस्थौल्पादि की चिकित्सा | तत्र मेदोsनिल श्लेष्मनाशनं सर्वमिष्यते । कुलत्थजूर्णश्यामा कयत्रमुद्गमधूदकम् ॥२१॥ मस्तुदंडाहतारिष्टचिंताशोधनजागरम् । मधुना त्रिफला लिह्याद्गुडूचीमभयां घनम् २२ रसांजनस्य महतः पंचमूलस्य गुग्गुलोः । शिलाजतु प्रयोगश्च साग्निमंथरसो हितः २३ विडंगं नागरं क्षारः काललोहरजो मधु । यवामलकचूर्णचयो गोऽतिस्थौल्य दोषजित् अर्थ-इस अति स्थाल्यादि विकार में मेद, अनिल और कफनाशक सब प्रकार के अन्न और पानी हितकारक होते हैं अर्थात् कुलथी, जूर्ण तृण धान्य विशेष ) सोंखियां जौ, मूंग, मधुमिश्रित जल, दही का तोड, 4 म चिंता वमन विरेचनादि शोधन, जागरण मधुमिश्रित त्रिफला, गिलोय, हरड, मोथा, इनका अवलेह बनाकर सेवन करे । इसी तरह रसौत, वृहत्पंचमूल, गूगल और शिला जीत का प्रयोग अग्निमंथ के रस में मिलाकर हितकारी है । बायविडंग, सोंठ, जवाखार काल लोह चूर्ण, मधु, यत्र, आमले का चूर्ण, इन सब को समान भाग लेकर मिला लबै । इनके सेवनसे अति स्थौल्यादि दोषोंका नाश हो जाता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १४ अतिस्थौल्यादिकान् सर्वान् रोगानन्यांश्च द्विधान् ॥ २७ ॥ ) हृद्रोगकालाविश्वासका सगलग्रहान् । बुद्धिमेघास्मृतिकरं सन्नस्याग्नेश्च दीपनम् । अर्थ- त्रिकुटा, कुटकी, त्रिफला, सहजने के बीज, बायबिडंग, अतीस, शालपर्णी, हींग, संचलनमक, जीरा, अजवायन धनियां चीता, हलदी, दारुहळदी, कटेरी, वडी कटेरी हाउबेर, पाठा की जड, केंबुक इन चौबीस द्रव्यों का चूर्ण समान भाग लेकर तयार करले । और इसके समान ही मधुघृत और तेल अलग मिला लेवे । इन में सौलह गुना जौ का सत्तू मिलाकर सेवन करने से पहिले कहे हुए सब प्रकार के स्थौल्यादि रोग और वैसे ही और और रोग तथा हृद्रोग, कामला वित्र कुष्ठ, श्वास, खांसी, और कंठरोग दूर होजाते हैं । यह योग बुद्धि, मेधा और स्मरणशक्ति का बढाने वाला है और मन्दाग्नि को उद्दीपन करने वाला है । For Private And Personal Use Only अतिलंघन से उत्पन्न रोगों का वर्णन । अतिकाये भ्रमः कासस्तृष्णाधिक्यमरोचकः स्नेहाऽग्निनिद्राको शुक्रजःक्षुत्स्वरक्षयः बस्तिन्मूर्धजंघreत्रिकपार्श्वरुजा ज्वरः । प्रलापोऽर्धानिलग्लानिच्छर्दिः पर्वास्थिभेदनम् विषादिग्रहाद्याश्च जायतेऽतिविलंघनात् अन्य औषध । व्योषकट्टीवर शिविडंगाऽतिविषास्थिराः हिंगु सौवर्चलाजाजी यवानीधान्यचित्रकाः २५ निशे बृहत्ौ हपुषा पाठामूलं च केचुकात् । अर्थ - अति लंघन करने से अत्यन्त कृशता, भ्रम, खांसी, प्यासकी अधिकता, अरुचि, ये रोग उत्पन्न होते हैं, तथा दे सक्तुभिः षोडशगुणैर्युक्तं पीतं निहंति तत् । एषां चूर्ण मधु घृतं तैलं च सदृशांशकम् | २६ | | हकी चिकनाई, पाचक अग्नि, निद्रा, नेत्रों की ज्योति, श्रवणशक्ति, वीर्य, ओज, क्षुधा
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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