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अ०१४
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१३३)
अर्थ- ऊपर जो शमन और शोधन | बंहित लंधित के लक्षण । दो प्रकार के लंघन अर्थात् अपतर्पण कहे हिते स्याद्वलंपुष्टिस्तत्साध्यामयसंक्षयः१६ गये हैं उनमें से नीचे लिखी रीतिसे उपाय __अर्थ बृहण के द्वारा बलवृद्धि और पुष्टि करै । अर्थात् जो मनुष्य अति स्थूल, अति
होती है, और बृहण से साध्य संपूर्ण रोगों बलवान,अत्यन्त कमयुक्त, अत्यन्त पित्तयुक्त,
का नाश हो जाता है। आम दोषसे पीडित, ज्वर, वमन, अतीसार
. लंधित के लक्षण । हृदयके रोग, बद्धकोष्ठता, भारापन, डकार विमलेंद्रियता सर्गो मलानां लाघबं रुचिः। जीमिचलाना आदि ऐसेही रोगोंसे पीडितहो,
क्षुत्तृटसहोदय शुद्धहृदयोद्गारकंठता॥१७॥ ऐसे मनुष्यों को संशोधननामक अपतर्पण
व्याधिमार्दवमुत्साहस्तंद्रानाशश्च लंचित ।
अर्थ-लंघन द्वारा इन्द्रियों में निर्मलता. देकर उनके शरीर में हलकापन करै । इसी
मल मूत्रका प्रबर्तन, शरीर में हलकापन, तरह जिनके शरीरके पूलता, बल, पित्त, और कफ मध्यमहैं और आमदोष, ज्वर,
रुचि, क्षुधा और तृषा का उदय, डकार
कंठ की शुद्धि, व्याधि की मृदुता, उत्साह आदि रोगों से पीड़ित हो उसे पाचन और
और निद्रा का नाश होता है । दीपन नामक लंघन देकर अपतर्पण करावै और जो हीन स्थौल्यवलादि युक्त और आम
लंघन वृंहण की अनपेक्षित मात्रा। दोषादि रोगग्रस्त हैं उन को क्षुधा और
अनपेक्षितमात्रादिसेविते कुरुतस्तुते ॥१८॥
अतिस्थौल्याऽतिकार्यादीन् बक्ष्यंते ते च तृष्णा के वेगों को रुकवाकर अपतर्पण करे । जो मध्यबलयुक्त, वातादि दोषों से पीडित अर्थ-मात्रा पर ध्यान देकर बृंहण और और दृढ़ हैं उनको बातातप और व्यायाम लखन के सेवन करने से अति स्थूलता और रूप लंघन द्वारा लंधन करावै । इसी तरह । अति कशता उत्पन्न होती है । अब हम आत अल्पबलयुक्त वातादि दाषाक्रान्त रोगी को कार्यादि और उन की मौषध का अर्गन उक्त वातादि रूप लंघन द्वारा लंघन करावै । | करते हैं। वृंहणीय और लंघनीय ।
। अति स्थाल्यादि का वर्णन । न बृहयेल्लंघनीयान्
बृह्यांस्तु मृदु लंघयेत्।१५। । रूपं तैरेव च क्षेयमतिबंहितलंधित ॥१९॥ युक्त्या वा देशकालादिबलतस्तानपाचरेत। प्रतिस्थौल्यापचीमेहज्वरोदरभगंदरान् । ___ अर्थ-जो मनुष्य लंघन के योग्य है उन्हें काससंन्यासकृच्छ्रामकुष्ठादीनतिदारुणान्२० बृहण न करावै। किन्तु ब्रहण के योग्य व्याक्ति ____ अर्थ-अति बृंहण और अति लंघन द्वारा को यदि वह लंघन के साध्य रोगग्रस्त हो | क्रम से अतिस्थौल्यादि और अति कार्यादि तो उस को मृदुलंघन करावे, अथवा देश, विकार उत्पन्न होते हैं । अति बृहित होने काल और बलानुसार युक्तिपूर्वक संतर्पण से अतिस्थौल्य, अपची, मेह, ज्वर, उदररोग और अपर्तपण दोनों मिली हुई चिकित्साकरै । भगन्दर, कास, सन्यास, मूत्रकृच्छ, भामदोष,
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