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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५४२] अष्टांगहृदय । म. टवाना, कटु और अम्लरस का प्रयोग, देह | अर्थ-अव हम यहां से अर्श चिकित्सित में कैंचकी फली रिगडना, इन सब कामोंका | नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। करे । जब इन क्रियाओं से रोगी बैठा होजा- अर्श में यंत्र प्रयोग । य और चेत करले तव उसे लहसन का रस | "काले साधारण व्यभ्रे नातिदुर्बलमर्शसम् पान कराना चाहिये । बिजौरे की केसर में विशुद्धकोष्ठ लघ्वल्पमनुलोमनमाशितम्१॥ शुचि कृतस्वस्त्ययनं मुक्तावणमूत्रंमव्यथम्। त्रिकुटा और नमक मिलाकर खाने को दे और शयने फलके बान्यनरोत्संगे व्यपाश्रितम् २ स्रोतोंकी विशुद्धिके निमित्त तीक्ष्ण और उष्ण पूर्वेण कायेनोत्तानम् प्रत्यादित्यगुदम् समम् वीर्य अन्न खाने को दे । समुन्नतकटीदेशमथ यंत्रणवाससा ॥ ३ ॥ सक्थ्नोः शिरोधरायां चअन्य उपाय परिक्षिप्तमृजुस्थितम् । विस्मापनैः संस्मरणैः प्रियश्रवणदर्शनः ॥ आलंबितं परिचरैः सर्पिषाभ्यक्तपायवे ४॥ पटुभिर्गीतवादित्रशब्दैायामशीलनैः ।। ततोऽस्मै सर्पिषाभ्यक्तं निदध्यादृजुयंत्रकम्। स्रसनोल्लेखनैधूमैः शोणितस्याबसेचनैः ॥ शनैरनुसुखं पायौ ततो दृष्ट्वा प्रवाहणात् ॥ उपाचरेत्तं प्रततमनुबंधभयात्पुनः। यत्रे प्रविष्टम् दुर्नामप्लोतगुंठितयाऽनु च । तस्य संरक्षितव्यं च मनः प्रलयहेतुतः " ॥ शलाकयोत्पीडय भिषक् य थाक्तविधिनाअर्थ-विस्मयोत्पादककर्म, प्रिय वस्तु का दहेत् ॥ ६॥ दर्शन, श्रवण और स्मरण, मनोहर गीत और क्षारेणैवामितररत्झारेण ज्वलनेन वा । वाजोंकी ध्वनि, व्यायाम का अभ्यास, वग्न, महद्वा बलिनश्छित्वा वीतयंत्रमथातुरम् ॥ स्वभ्यक्तपायुजघनमवगाहे निधापयेत् । विरेचन, धूमपान, रक्तमाक्षण, इन कमांद्वारा | निर्वातमंदिरस्थस्य ततोऽस्याचारमादिशेत् मदात्यय रोगीकी चिकित्सा करनी चाहिये जि- | एकैकमिति सप्ताहात्सप्ताहात्समुपाचरेत् । स से रोगोंकी पुनर्वार उत्पत्ति न हो, और ___अर्थ- साधारण काल में अर्थात् शरत प्रलयके हेतु मदात्ययसे रोगीके मनकी रक्षा | और वसंत ऋतु में जिस दिन आकाश करनी चाहिये । मेघाच्छन्न नहो, उस दिन ऐसा रोगी जो इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा बहुत दुर्बल न हो और वमन विरेचन द्वारा टीकायां चिकित्सितस्थाने मदात्य जिसका कोष्ठ शुद्ध हो गया हो, और वात यचिकित्सितं नाम सप्तमो के अनुलोमन करनेवाले अन्न का भोजन किया हो, तथा जल और मृत्तिका द्वारा ऽध्यायः । शुद्ध हो, तथा स्वस्त्ययन किया गया हो, जो मल और मूत्रका परित्याग कर चुका अष्टमोऽध्यायः । हो, पीडा सै रहित हो, ऐसे अर्शरोगी को शय्या पर, वा तख्त पर अथवा किसी मअथाऽतोर्शसां चिकित्सितं व्याख्यास्यामः। नुष्य की गादी में ऐसी रीति से बैठा देव For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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