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अ.८
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(५४३ )
कि ऊपर का शरीर कुछ उठा हुआ हो । रुचिरन्नेऽग्निपटुता स्वास्थ्यं वर्णबलोदयः१० और गदा का द्वार सूर्य के प्रकाश में हो । अथे- मस्सों के अच्छी तरह दग्ध होने और कमर का भाग ऊंचा हो, फिर एक पर वायुकी अनुलोमता, अन्न में रुचि, पटी से पांव और ग्रीवा को बांधकर रोगी जठराग्नेि की प्रखरता, स्वास्थ्य, वर्ण और को सीधा करदे और सेवक से पकडवालेवे। बलका उदय होता है। फिर रोगी की गुदा पर घी चुपड दे, तद- वस्तिशूल में कर्तव्य । नंतर घी से चुपडा हुआ अझयंत्र धीरे धीरे बस्तिशूले त्वधोनाभेर्लेपयेत्श्लक्ष्णकल्कितैः सीधा करके उसकी गदा में लगा देव । वर्षाभूकुष्टसुरभिर्मिशिलोहामरावयैः ११॥ पीछे प्रवाहण यंत्र से देखकर यंत्र में प्रविष्ट
अर्थ-अर्शरोग में यदि वस्ति के स्थान
में वेदना होती हो तो सांठ, कूठ, राल, ववासीर को कपडे से लिपटी हुई सलाई
सोंफ,और अगर देवदारु इन सब द्रव्यों को द्वारा यथोक्त रीति से क्षार लगाकर जलादे।
महीन पीसकर नाभि के नीचे लेप करे । तथा सूखी अर्श को क्षार वा आग्नि से
विष्टा और मूत्रके प्रतीघातमें चिकित्सा। जलावै । यदि रोगी बलवान और मस्से
शकृन्मुत्रप्रतीघाते परिषेकावगाहयोः। बड़े हों तो अस्त्र से काट कर क्षार वा वरणालंबुषैरण्डगोकंटकपुनर्नवैः ॥ १२ ॥ अग्नि से दग्ध करदे, फिर उसके बंधनको सुषवीसुरभीभ्यां च क्वाथमुष्णां प्रयोजयेत् । खोलकर गुदा और जांघ को धोकर स्नेह सस्नेहमथवा क्षीरं तैलं वा वातनाशनम् १३ चुपडदे और रोगी को ऐसे स्थान में लेजावे
युजीतानंशकृतेंदि स्नेहान्वातघ्नदीपानान् ।
___ अर्थ अर्शरोगमें मल और मूत्रकी विव. जहां वायुका प्रवेश न हो फिर उष्णोदकाचारका व्यवहार करावै । इस रीति से सात
द्धता होनेपर बरना, गोरखमुंडी, अरंडकी सात दिन का अंतर देकर एक एक मां
जड, गोखरू, सांठ, कालाजीरा,रास्ना इन
| के गरम काथमें तेल मिलाकर परिषेक और सांकुर का छेदनकरे, सबको एक साथ न काटे ।
अवगाहन में काममें लावे । अथवा वातनाबहवर्श में कर्तव्य । | शक औषधों से सिद्ध किया हुआ दूध अथवा प्रारदक्षिणं ततो वाममर्शप्रष्ठाग्रज ततः ९॥ वलातल, परिषेक और अवगाहन में काम बवर्शसः
में लावे । मलकी विवद्वता को दूर करने अर्थ-जिस रोगी के बहुत से मस्से हों वाला अन्न तथा वातनाशक और अग्निउसके प्रथम दाहिनी ओर के, पीछे बांई। संदीपन घी वा तेलका प्रयोग करे। . ओर के मस्सों की तदनंतर पीठ के अग्रभा- | सायोग्य गदकीलक में कर्तव्य । गवाले मस्सों की चिकित्सा करे ।
अथाऽप्रयोज्यदाहस्थ निर्गतान्कफवातजान् मुदग्धअर्श के लक्षण । सस्तंभकण्डूरुक्शोफानभ्यज्य गुदकीलकान् सुदग्धस्य स्याद्वायोरनुलोमता । विल्वमूलाग्निकक्षारकुष्टै सिद्धेन सेचयेत् ॥
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