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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. ७ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (५३५) अतोऽस्य वक्ष्यते योगो य सुखायैव केवलम् अर्थ-जो सुरा अश्विनीकुमार के महत्तेज ___ अर्थ-यथोपयुक्त मद्यपान करनेसे मद्य | को धारण करती है, जो सुरा सरस्वती के जनित व्याधियां उत्पन्न नहीं होती है इस / बल ( उत्साह ), इन्द्रके वीर्य और विष्णुके लिये अब हम मद्यसंबंधी उन प्रयोगों का | महात्म्यको धारण करती है,जो सुरा कामदेवर्णन करते हैं जिससे सुखही उत्पन्न हो | बका आयुध और बलभद्र का पुरुषार्थ है, और किसी प्रकारकी ब्याधि उत्पन्न न हो। जो सौत्रामाणयज्ञ में ब्राह्मण के मुख और सुराके गण। अग्निमें होमी जाती है, जो संपूर्ण औषधियों आश्विनं या महत्तजो बल सारस्वतं च या। से युक्त महासागर से देवता और असुरों के दधात्येंद्र च या वीर्य प्रभावं वैष्णवं च या॥ मथने से लक्ष्मी, चन्द्रमा और अमृतके संग अस्त्रं मकरकेतोर्या पुरुषार्थो बलस्य या। उत्पन्न हुई है, जो सुरा मधु, माधव, मैरेय सौत्रामण्यां द्विजमुखे या हुताशे च हूयते॥ सीधु, गौड और आसवादि अनेक रूपों में या सर्वोषधिसंपूर्णान्मथ्यमानात्सुरासुरैः। अवस्थित होकर भी अपनी मादक शक्ति का महोदधेः समुद्भूताः श्रीशशांकामतैः सह ॥ परित्याग नहीं करती है, जिस सुरा का पान मधुमाधवमैरेयसीधुगौडासवादिभिः।। मदशक्तिमनुज्झती या रूपैर्वहुभिः स्थिता॥ करनेसे मृगलोचनी नवयुवतियोंका विलासिनी यामासाद्य विलासिन्यो यथार्थ नाम बिभ्रति (विलासो विद्यते यासामिति ) नाम सार्थक कुलांगनाऽपि यां पीत्वा नयत्युद्धतमानसा ॥ होजाताहै । जिस सरा का पान करके कलअनंगालिंगितैरंगैः कापि चेतो मुनेरपि। तरंगभंगभृकुटीतर्जनमानिनीमनः ।। ६०॥ वती युवतियां भी उद्धतमना होकर अनंग एकं प्रसाद्य कुरुते या द्वयोरपि निर्वृतिम् । द्वारा आलिंगित अंगसे मुनिजनों के भी चित्त यथाकाम भटावाप्तिपरिहृष्टाप्सरोगणे ॥ को कहीं का कहीं ले जाती है जो सुरा कुटिल तृणवत्पुरुषा युद्धे यामासाद्य स्यजत्यसून् । भृकुटियों की तर्जना अर्थात् प्रणयकलह यांशीलयित्वाऽपि चिरं बहुधा बहुविग्रहाम् विशेष से मानिनी कामिनीगणों के मनको नित्यं हर्षातिवेगेन तत्पूर्वामिव सेवते ।। शोकोद्वेगारतिभयैर्या दृष्टवा नाभिभूयते ॥ | प्रसन्न करके दोनों स्त्री पुरुषों को सुख गोष्ठीमहोत्सबोद्यानं न यस्याः शोभते बिना। उत्पन्न करती है, जिस सुरा का आस्वादन स्मृत्वा स्मृत्वा च बहुशो बियुक्तःशोचते यया करके मनुष्य अपने प्राणोंका उस समरभूमि अप्रसन्नाऽपि या प्रीत्यै प्रसन्ना स्वर्ग एब या में तृणवत् परित्याग करदेताहै जिसमें उसके अपीद्रं मन्यते दुःस्थ हृदयस्थितया यया ॥ शौर्य और पराक्रमको देखकर अप्सराओं के अनिर्देश्यसुखास्वादा स्वयंवेद्यैव या परम् । इति चित्रास्ववस्थासु प्रियामनुकरोति या ॥ गण प्रसन्न होते हैं । जिस सुरा को आहाप्रियातिप्रियतां याति यत्प्रियस्य विशेषतः। रादि अनेक रूपमें और मधुमाधवादि अनेक या प्रीतिर्या रतिर्या बाग्या पुष्टिरिति च स्तुता विग्रह में चिरकाल तक सेवन करताहुआ देवदानवगंधर्वयक्षराक्षसमानुषैः। पानप्रवृत्तौ सत्यां तां सुरां तुविधिना पिवेत्। | भी हर्षके अतिवेगसे प्रतिदिन ऐसे पान For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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