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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ११ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (१०७) nea धातुक्षय वृद्धि का कारण । मल स्थानोंमें विगाड़ उत्पन्न होता है। इन स्वस्थानस्थस्य कायानरंशा धातुषुसंश्रिताः। मल स्थानों में विगाड होने से दोषादि के तेषांसादातिदीप्तिभ्यां धातुवृद्धिक्षयोद्भवः३४ अनुसार व्याधियां उत्पन्न हो जातीहै । . अर्थ-पकाशय और आमाशय के बीच भोज का लक्षण । में पाचक नाम पित्त का स्थानहै उसे का. ओजस्तु तेजोधातूनां शुक्रांतानां परं स्मृतम् । याग्नि अर्थात् जठराग्नि कहते हैं । इस | हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबंधनम् ।३७। जठराग्नि के अंश धातुओं में रहतेहैं । अव स्निग्धं सोमात्मकं शुद्धभीषल्लोहितपीतकम् । यह अग्नि मन्द पड़जाती है तव धातुओं की यन्नाशे नियतं नाशो यस्मिस्तिष्ठति तिष्ठति३८ वृद्धि होती है और जब अग्नि अति तक्ष्ण निष्पद्यते यतो भामा विविधा देहसंश्रयाः। ___ अर्थ रस से लेकर वीर्य्यपर्यन्त सब होती है तब धातु क्षीण होती है । धातुओं का जो परम तेज है उसी को ओज क्षय वृद्धि की परंपरा ।। कहते हैं, वह हृदय में रहता है और सम्पूर्ण पूर्वो धातुः परं कुर्याद्वृद्धःक्षीणश्चतद्विधम्। देह में भी व्याप्तहै । यह ओजही शरीरके अर्थ-पहिला रस धातु वृद्धि पाकर अपने जीवन का प्रधान हेतु है । यह ओज स्निग्ध आगे के रक्त धातु की वृद्धि करता है । और सोमात्मक ( शीत वीर्य्य ) शुद्ध कुछ लाल क्षीण होकर अपने अगले धातु रक्तको क्षीण | तथा पीलाहै । ओजके नष्ट होने पर जीवन करताहै इसी तरह इनसे अगले धातुओं की का नाश होजाता है और ओजके विद्यमान क्षय वृद्धि समझना चाहिये ॥ दोषादि बिगड़ने का क्रम । रहने पर जीवन स्थित रहता है । ओज ही दोषा दुष्टा रसैर्धातून दूषयंत्युभयेमलान् ३५ से शरीर संवन्धी सबभाव निप्पन्न होतेहैं । अधो द्वे सप्त शिरसि खानि स्वेदवहानि च। ओज का क्षय । मला मलायनानि स्युर्यथास्वं तेष्वतो गदाः३६ ओजःक्षीयेतकोपक्षद्धयानशोकश्रमादिभिः३९ अर्थ-मधुरादि रसके मिथ्यायोग और अति विमेति दुर्बलोऽभीक्ष्ण ध्यायति व्यथितेंद्रियः। योनके सेवन करनेसे कुपित हुए दोष धातुओं विच्छायो दुर्मना रूक्षो भवेत्क्षामश्च तत्क्षये को दूषित करदेतेहैं । धातु और दोष दोनों | जीवनीयौषधक्षीररसाद्यास्तत्र भेषजम् । मिल कर मलको दूषित कर देते हैं विगड़े | अर्थ-वेध, क्षुधा, चिन्ता, शोक और हुए मल अपने स्थानों को विगाड़ देते हैं। परिश्रम आदि से ओज क्षीण होजाता है। गुदा और मेढ़ ये दो नीचके मलस्थान हैं। ओज का क्षय होने पर मनुष्य बिना कारण दो आंख, दो कान, दो नासाछिद्र और एक ही डरने लगता है, दुवला होता जाता है मुख ये सिर के अग्र भाग में मल के सात | निरन्तर चिन्ता में डूवा रहता है, इन्द्रियों में स्थान है। तथा पसीने वहने के रोमकूप पीड़ा होने लगतीहै, शरीरकी कांति बिगर सब शरीर में व्याप्त हैं । इस तरह इन दस | जाती है, मन में उदासी रहती है, देह रुक्ष For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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