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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदये । ( १०६ ) इसलिये रस की चिकित्सा भी कफ के सदृश जान लेना चाहिये । इससे रसकी चिकित्सा न कहकर रक्तादि की कहते हैं । रक्तादि की चिकित्सा | विशेषाद्रक्तवृद्धयुत्थान् रक्तस्रुतिविरेचनैः । मांसवृद्धिभवान् रोगान् शस्त्रक्षाराग्निकर्मभिः स्थौल्य काश्यपचारेण मेदोजानस्थिसंक्षयात् । जातान् क्षीरघृतैस्तिक्तसंयुतैर्वस्तिभिस्तथा अर्थ - विशेष करके रक्तकी बृद्धिसे उत्पन्न हुए रोगों में रक्तमोक्षण (फस्द खोलना ) और विरेचन द्वारा चिकित्सा करे। मांस की वृद्धि से उत्पन्न हुए रोगों में शस्त्रकर्म ( नश्तर आदि से काटकर अलग करदेना) क्षारकर्म [ तेजाब से जलादेना ] और अम्निकर्म [ लोहशालाका दिसे दाग देना ] द्वारा इलाज करै । की वृद्धि से उत्पन्न हुए विकारों की चिकित्सा शरीरके कृशकारक उपायों से और मेद के क्षय से उत्पन्न हुए विकारोंकी चिकित्सा स्थूलताकारक उपायों से करै । अस्थि के क्षय से उत्पन्न हुए विकारों की चिकित्सा तिक्त पदार्थ संयुक्त घी और दूध स्तियों से करे । कोई कोई कहते हैं कि वायुजनक द्रव्य अस्थि की क्षीणता से उत्पन्न हुए विकारों की वृद्धि करतेहैं, इस लिये इस जगह तिक्त द्रव्यों का प्रयोग ठीक नहीं है क्योंकि तिक्त द्रव्य बायु उत्पन्न करते हैं, इसका समाधान यह है कि अस्थि स्वाभाविक खर ( कठोर और शुष्क ) है । और जो द्रव्य स्निग्ध और शोषण कर्ता होते हैं वेही खरब पैदा करते है परन्तु ऐसा द्रव्य कोई नहीं मिलता है जिस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ११ में दोनों स्निग्ध और शोषण गुण हों। इसी लिये घी और दूध स्निग्ध है और तिक्त द्रव्य वायुजनक होने से शोषक है इस तरह इन स्निग्ध और शोषक द्रव्यों की वस्ति अस्थि की वृद्धि कर सकती है । ऊपर कहीं हुई तिक्तरससंयुक्त वस्ति मज्जाक्षयजनित और शुक्रक्षयजनित विकारों में भी हितकर है। इन दोनों प्रकार के रोगों में स्वादु और तिक्त भोजन करै तथा वमनादि पञ्च कर्म द्वारा शुद्धि करै । मैथुन व्यायाम तथा अन्यान्य शुक्र के शोधन करने वाले विषय भी हितकारक हैं । पुरीषादि की चिकित्सा | विड्वृद्धिजानती सारक्रिययाविद्योद्भवान् मेषाजमध्य कुल्माषयवमाषद्वयादिभिः ॥ ३२ ॥ मूत्रवृद्धिक्षयात्यांश्च मेहकुच्छ्रचिकित्सया । व्यायामाऽभ्यंजनस्त्रेदमयैः स्वेदयोद्भवान् अर्थ - पुरीष की वृद्धि से उत्पन्न हुए रोगों में अतिसार में कहीं हुई चिकित्सा के अनुसार प्रयोग करै । पुरीष की क्षीणता से उत्पन्न हुए विकारों में ढ़ा और बकरा के मध्य भाग का मांस, कुल्माष ( हींग और घृत डालकर अर्द्ध सिद्ध तंडुल और चौला की खिचडी ) जौ, उरद, और राजमाष ( और आदि शब्द से काकांड, कमाच ) आदि मलवर्द्धक द्रव्यों का प्रयोग करै । मूत्रवृद्धि जनित रोगों की चिकित्सा प्रमेहकी चिकित्सा के अनुसार और मूत्रक्षय जनित रोग की मूत्रकृच्छ्र की चिकित्सा के अनुसार चिकित्सा करै । स्त्रेदक्षयजनितरोग में व्यायाम तैलमर्दन, स्वेदप्रयोग [भपारा ] और मद्यपान करना उचित है । | For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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