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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदये । ( १०८ ) और क्षीण होती चली जाती है। ओज की क्षीणता से उत्पन्न हुए रोगों में जीवनीय गणोक्त दस औषध तथा दूध और मांस का यूत्र आदि औषधका प्रयोग करना चाहिये । ओज की वृद्धि | ओजोविवृद्धौ देहस्य तुष्टिपुष्टबलोदयः । ४१ । अर्थ - ओज की वृद्धि होने से देह की तुष्टि पुष्टि तथा बलका उदय होता है । वृद्धि और क्षय की सामान्य चिकित्सा | । यदनं द्वेष्टि यदपि प्रार्थयेताविरोधि तु । तत्तत्त्यजन् समनंश्च तौ तौ बृद्धिक्षयौ जयेत् अर्थ - जिस दोष की वृद्धि से जिस अन्न की अनिच्छा हो उसको त्याग देने से उस दोष की वृद्धि तथा जिस दोष के क्षय से जिस अन्न के प्रति अभिलाषा उत्पन्न हो उसको खाने से उस दोष की क्षीणता दूर होती इस सबका सारांश यह है कि जिस रोग की वृद्धि होती है प्रायः उसी दोष . के वृद्धिकारक अन्न में दोष पैदा होता है तथा जिस दोष की क्षीणता होती है प्रायः 'उसी दोष के वृद्धिकारक अन्नमें अभिलापा होती है । वृद्धिक्षय का कारण | कुर्वते हि रुचि दोषा विपरीत समानयोः । वृद्धाःक्षीणाश्च भूयिष्टं लक्षयंत्यबुधास्तुन ॥ अर्थ- ऊपर कहा गया है कि द्वेष्य अन्न का त्याग और अभीष्ट अन्न का सेवन करके दोष को जीतना चाहिये । इसका कारण यह है कि वातादिक दोष बढ़े हुए हों तो अपने विपरीत गुण वाले Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ११ अन्न की रुचि उत्पन्न करते हैं । तथा अत्यन्त क्षण होगये हों तो अपने समान गुण वाले अन्न की रुचि पैदा करते हैं । यह दोष का स्वभाव है । विपरीत गुण वाले अन्नादिक उस दोष के नाश करने वाल हैं । और यदि दोष बढजाय अथवा इसी तरह समान गुण वाले अन्नादिक दोष की वृद्धि करते हैं और दोष का क्षय हो जाय, और वैसी ही रुचि स्वाभाविक ही मनुष्य में उत्पन्न हो यह सब दैवाधीन है। वायु के वृद्धि पाने पर स्निग्ध, अम्ल और मधुर अन्न कीं अभिला उत्पन्न होती है। पित्त बढने पर शीत मधुर, रूक्ष, तिक्त और कषाय अन्न में रुचि उत्पन्न होती है । कफ के बढने पर रूक्ष, अम्ल, कटु, तिक्त अन्न की अभिलाषा होती है । इसी तरह वायु के क्षीण होने पर रूक्ष कषायादि अन्न की इच्छा होती है । पित्त क्षीण होने पर अम्ल, लवण, कटुक अन्न की इच्छा होती है । कफ क्षीण होने पर स्निग्ध, मधुर, अम्ल और लवण अन्न की इच्छा होती है । अन्य लक्षण | यथाबलं यथास्वं च दोषा वृद्धा वितषते । रूपाणि जहति क्षीणाः समाः स्वं कर्म कुर्वते ॥ अर्थ- जब दोष वृद्धि पाते हैं तब अपने बल के अनुसार अपने गुण, कर्म और लक्षणों ICT विस्तार करते हैं, जब क्षीण होते हैं तब उसी तरह अपने गुण, कर्म और लक्षणों को छोड देते हैं । जैसे वायु के बढने पर | रूक्षता, शीतलता, कर्कशता आदि बढ जाते For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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