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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९७४) मष्टांगहृदय । अर्थ:-जो मनुष्य अन्न का सेवन न | असाध्य रोग से आक्रान्त होनेपर भी रोग करता हुआ घी में भुनी हुई मंडूकपर्णी को | रहित, बुडढा हानेपर भी प्रवल पुरुषार्थ एक महिने तक सेवन करताहै वह पराक्रमी | कारी, और युवा की तरह गठीली देहवाला तथा तरुणाई और लावण्य से युक्त होकर | और कान आंखसे युक्त होकर पांच सौ वर्ष दीर्घ कालतक जीता है। तक जीता है। अन्य प्रयोग। नरसिंह घृत। लांगलोत्रिफलालोहपलपंचाशतीकृतम् । | गायत्रीशिखिशिशिपासनशिवायेल्लाक्षका. मार्कवस्वरसे षष्टया गुटिकानां शतत्रयम् । रुष्करान् छायाविशुष्कं गुटिकाधमचा- | पिष्टवाष्टादशसंगुणेभसि घतान् खंडेःत्पूर्व समस्तामपि तां क्रमेण । सहायोमंयैः ॥ १७०॥ भजेतिरिक्ताः क्रमशश्च मंडं पाने लोहमयेयहरविकरैरालोडयन्पाचये पेयां विलेपी रसकोदनं च ॥ १६७ ॥ दग्नौ वानुमृदौ सलोहशकलं पादस्थितं. सर्पिः निग्धं मासमेकं यतात्मा तत्पचेत् ॥ १७१ ॥ मासादूर्व सर्वथा स्वैरवृत्तिः । पूतस्यांशः क्षीरतोशस्तथांशी वज्यं यत्नात्सर्वकालं त्वजीर्ण । भांर्गानिर्यासाद् द्वौ वरायास्त्रोंशाः । वर्षेणैवं योगमेवोपयुंज्यात् ॥ १६८॥ अंशाश्चत्वारश्चह हैयंगवीनाभवति विगतरोगो योऽप्यसाध्यामयातः ।। देकीकृत्यैतत्साधयेत्कृष्णलौहे १७२ प्रबलपुरुषकारः शोभते योऽपि वृद्धः।। विमलखंडसितामधुभिः पृथउपचितपृथुगामश्रोत्रनेत्रादियुक्त ग्युतमयुक्तमिदं यदि वा घृतम् । स्तरुग इव समानां पंच जीवेच्छतानि१६९ / स्वरुचिभोजनपानविचेष्टितो अर्थ- कलहारी, त्रिफला, लोहा, इनको भवति ना पलशः परिशीलयन् १७३ ५. पल लेकर भांगरे के रसमें पीसकर श्रीमानिधूतपाप्पा वनमहिषबलो ३६० गोलियां बना लेवे । इन सब गोलियों वाजिवेगः स्थिरांगः केशै गांगनीलैमधुसुरभिमुखो को छाया में सुखाकर पहिले आधी आधी नेकयोषिनिषेवी। गोली खाय, फिर पूरी गोली खानेका अभ्यास पामेधाधीसमृद्धः सपटुहुतबहो करे । इससे विरेचन होनेपर क्रमसे मंड, मासमात्रादयोगाद् पैया, विलेपी, और मांसरस का पथ्य देवे । धत्तेऽसौ नारसिंह वपुरनलशिखा. तप्तचामीकराभम् ॥ १७५॥ इस तरह एक महिने तक संयतात्मा होकर अत्सारंनारसिंहस्यव्याधयोनस्पृशत्यपि घृत सहित स्निग्ध अन्नका भोजन करें। एक चक्रोज्वलभुजंभीतानारसिंहमिवासुराः महिने पीछे इच्छानुसार खाना पीना करै । अर्थ-जावित्री, चीता, शीसम, असन, इसमें अजीर्ण भोजन सदा वर्जित है । इस । हरड, वायविडंग, यहेडा और भिलावा इन तरह एक वर्ष सब गोलियों को खा लेवे। सब द्रव्यों को शिला पर पीसकर अठारह इन गोलियों का सेवन करनेवाला मनुष्य | गुने पानी में घोलकर उम में थोड़े से लोहे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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