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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०३९ उत्तरस्थान भाषाटीकासमैत । __अर्थ-अच्छी वृष्ठिसे जैसे नई खेती हरी । शिलाजतु प्रयोग। भरी रहती है, वैसे ही दूध, घी तेल वा गरम शिलाजतुक्षौद्रविडंगसर्पिजलके साथ असगंध का सेवन करनेसे लोहाभयापारदताप्यभक्षः। कृश शरीर पुष्ट रहता है। आपूर्यते दुर्वलदेहधातु त्रिपंचरात्रेण यथा शशांकः ॥ १६२ ॥ कालेतिलों का प्रयोग। अर्थ--जिनक देह और धातु दुर्बल होगये दिने दिने कृष्णतिलप्रफुचं को शिलाजीत. शहत. वायविडंग, समश्नतां शीतजलानुपानम् । । पोषः शरीरस्य भवत्यनल्पो | घी, लोहचूर्ण, हरड, पारा और रूपा सेवन दृढीभयस्यामरणाश्च दंताः ॥ १५९ ॥ कराने से चन्द्रमा की तरह पन्द्रह दिन में अर्थ-जो मनुष्य प्रतिदिन एक पल काले | देह और धातु पूर्ण होजाते हैं। तिल चबाकर ऊपर से ठंडा पानी पोलताहै __ अन्य प्रयोग। उसका शरीर अत्यन्त पुष्ट होजाता है और ये मासमेकं स्वरस पिवंति उसके दांत सब मरने तक दृढ रहे आते हैं। दिने दिने भृगरजःसमुत्थम् । बालों को काला करनेवाला अवलेह ।। क्षीराशिनस्ते बलवीर्ययुक्ताः समाः शतं जीवितमाप्नुवंति ॥ चूर्ण श्वदंशामलकामृतागां। लिहन्ससपिमधुभागमिश्रम् । अर्थ--जो भांगरे के रसको प्रतिदिन वृषः स्थिरः शांतविकारदुःखः एक महिने तक पाता है और ऊपर से दूध समाः शतं जीवति कृष्णकेशः॥ पाताह वह बल और वायको प्राप्त करके अर्थ-गोखरू, आमला और गिलोय | सौ वर्षतक जीता है।। इनका चूर्ण घी और शहत में मिलाकर अन्य प्रयोग। चाटने से शुक्र की वृद्धि, शरीर की दृढता मासं वचामप्युपसेषमानाः क्षीरेण तैलेन घृतेन वाऽपि । रोगजनित केशकी शान्ति, केशोंका काला भतिरक्षोभिरधृष्यरूपा पन और सौ वर्षकी भायु होती है। मेधाघिनो निर्मलमृष्टवाक्याः ॥ अन्य प्रयोग। अर्थ--जो मनुष्य दूध, तेल और घी साधै तिलैरामलकानि कृष्णैः के साथ एक महिने तक वच का सेवन रक्षाणि सक्षुध हरीतकार्षा । येऽधुर्मयूरा इव से मनुष्या करताहै वह राक्षसों के भयसे छूटकर मेधावी रम्य परीणाममवाप्नुषंति ॥ १६१ ॥ और स्वच्छ मिष्टभाषी होजाताहै । अर्थ-जो काले तिलों के साथ आमला ... मंडूकपर्णी प्रयोग। वहेडा और हरड खाताहै वह मोर की तरह मंडूकपर्णीमपि भक्षयंतो भृष्टां कृते मासमनन्नभक्ष्याः । दिन प्रतिदिन शरीर की रमणीयता को जीवंति कालं विपुलं प्रगल्भा प्राप्त होता है। स्तारण्यलावण्यगुणोदयस्था॥ १६५॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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