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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प०१९ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (६५७ और विचर्चिका, ये सब रोग दूर हो सिध्म पर लेप। जाते हैं। मरिच तमालपत्रं कुष्टं समनःशिलं विचार्चिका की चिकित्सा। . सकासीसम्। सुग्गडे सर्षपात्कल्कः कुकूलानलपाचितः। तैलेन युक्तमुषित सप्ताहं भाजने ताने ।७३। लेपाद्विचाविकांहति रागवेग इव प्रपाम् ॥ तेनालिप्तं सिम सप्ताहाधर्मसेविनोपैति। मनःशिलालेमरिचानि तैल.. मासान्नव किलासंसानेन विना विशुद्धस्य। मार्क पयः कुष्ठहरः प्रदेहः। __ अर्थ-कालीमिरच, तमाखूका पसा,कूठ, तथा करंजप्रपुनाटबीजं मनसिल, हीराकसीस, इनको पीसकर तेल कुष्टान्वितं गोसलिलेन पिष्टम् ॥ ७॥ अर्थ-स्नुही की डाली में सरसों का में सानकर सातदिन तक तांबे के पात्र में कल्क भरकर गौ, गधे वा घोडे के ऊपलों रखदे फिर इसको सिध्म पर लगाकर धूप में की आग में भस्म करले | इसका लेप क सेकले । सात दिन तक ऐसा करने से सिध्म. रने से विचचिका का रोग ऐसे नष्ट हो जाता रोग जाता रहता है । एक महिने लगाने से है जैसे रागके वेग से लज्जा नष्ट होजाती नया श्वित्ररोग नष्ट हो जाता है । औषध है। मनसिल, हरताल, मिरच, तेल और । लगाने के काल में स्नान किये विनाही पोछ आक का दूध इनका लेप करने से कुष्ठरोग ने से ही शरीर को साफ कर लेना चाहिये। आता रहता है । इसी तरह कंजा, पमाड अन्य प्रयोग। के बीज, और कूठ इनको गौ मूत्र में पीस | मयूरकक्षारजले सप्तकृत्वःपरिनते। कर लेप करने से कुष्ठरोग जाता रहता है। सिद्ध ज्योतिष्मतीतेलमभ्यंगासिध्मनाशनम् -- अन्य प्रयोग । गुग्गुलुमरिचविगैः । | अर्थ-ओंगा के खार को सातबार पानी सर्षपकासीससर्जरसमस्तैः। । में छानले फिर इस क्षारजल को मालकांग• श्रीवेष्टकालगंधैर्मनाशिलाष्टकंपिल्लैः॥ ७१॥ नी के तेल में पकाकर लगाने से सिध्म नष्ट उभयहरिद्रासीहतश्चाक्रिकतैलेन,.. दिनकरकरामितसैः कुष्ठ घृष्टं च नष्टं च । अन्य प्रयोग। अर्थ--गूगल,कालीमिरच,बायबिडंग,सरसों, वायसघामूलं घमनीपत्राणि मूलकाद्वीजम् कसीस, राल, मोथा, सरलकाष्ठ, हरताल, तक्रेण भौमवारे लेपः सिध्मापहः सिद्धः॥ गंधक, मनसिल, कूठ, कबीला, दोनों हल. । अर्थ-काकजंघा की जड, कडवी तोरई दी इन सबको पीसकर पमाण के बीजों के के पत्ते, मूली के बीज, इन सब द्रव्यों को तेल में मिलाकर लेप करने से रिगड खाया पीसकर तक में सानकर मंगलवार को लेप हुआ कुष्ट दूर होजाता है । लेप करके उस अंग को धूप में सेकलेना चाहिये । चाक्रिक करने से सिध्मरोग दूर हो जाता है। तेल घानी से तत्काल निकले हुए गरम तेल ___ अन्य प्रयोग। को भी कहते हैं इसे लोक में पानी का तेल जीवतीमंजिष्ठादार्वी कंपिल्लुक पयस्तुत्यम् । कहते हैं। एषततैलपाकः सिद्धः सिद्धेच सर्जरसः॥ मिश्रितरेभिः। होजाता है।। ८३ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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