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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । अ० १३. कामदासनकासदरमामलसम्यानमा र मा गायनमा " देयः समधूच्छिष्टो विपादिका तेन- अतिशयितवनकगुणांश्वित्रार्थीप्रधिमालाघ्नं - नश्यति हक्ता। ! अर्थ-अरंड की जड, रसौत, माथा, चर्मककुष्टकिटिभं कुष्ठं शाम्यत्यलसकं च॥ नीप ( कदवका भेद), कदंब, भाडंगी, कअर्थ-जीबंती, मजीठ, दारुलहदी, क. बीला, बायबिडंग, प्रियंगु, इन्द्रायण,संभालू, बीला, आक का दूध, तूतिया इन सबको भिलावा, देवदारू, स्वर्णक्षीरी, सरलकाष्ठ, तेल और घी में पकाकर राल और मोम गूगल, मनसिल, नमक, हरताल, सोंठ ,ये मिलादेवै । इस औषध के लेप से विवाई, सब समान भागले और तुल्यभाग स्नुही चर्मकुष्ठ, एककुष्ठ, किटिभ और अलसक यह और आक का दूध मिलाकर तिलयो तेलको रोग दूर हो जाते हैं। पकावै । यह महाक्जक तैल अतिशय करके वजक तैल। बजके गुण के समान है, यह श्वित्र, अर्श, मूलं सप्ताहात्या शिरीषाश्चमारा और ग्रंथिमाला रोगों को दूर करता है । दन्मिालत्याश्चित्रकास्फोतनिवात् । अन्य तैल । घी कारजं सार्षपं प्रापुनाट | श्रेष्ठा जंतुघ्नं त्र्यूषण द्वे हरिद्रे॥ ७९ ॥ | कुष्टाश्वमारभृगार्कमूत्रस्नुक्क्षीरसैंधवैः। तैल सिद्धविषायापमभ्यंगात्कु जित्परम् ॥ तिलतैलं साधित तैः समूत्रैस्त्वग्दोषाणां दुष्टनाडीव्रणानाम् ।। अर्थ- कूठ, कनेर, भांगरा, आक, गोअभ्यंगेन लक्ष्मवातोद्भवानां मूत्र, स्नुही का दूध, सेंधानगक, तथा मोठे नाशायालं वज्रकं वज्रतुल्यम् ॥ ८०॥ तेलिया का प्रतीबाप देकर तेल को पकावै । अर्थ-सातला की जड,सिरस की छाल, इस तेल के लगाने से कुष्ठ नष्ट होजाता है । कनेर, भाक, मालती, चीता, अपराजिता, कवादि की औषध । . . नीम, कंगाके बीज, सरसों, पमाट के वीज, सिद्धं सिक्थकसिंदरपुरतुत्वकतायः। त्रिफला, बायबिडंग, त्रिकुटा, दोनों हलदी, कच्छविचर्चिकांवाऽऽशुकटुतैलंगियच्छति ये सब द्रव्य डालकर गोमूत्र के संग सिद्ध अर्थ- मोम, सिंदूर, गूगल, ततिया और किया हुआ तिलका तेल लगाने से त्वचा रसौत इनके साथ सरसों का तेल पकावै, के दोष, दाषित नाडीव्रण तथा कफवातजन्य इस तेल को लगाने से कच्छ और विचरोग शांत हो जाते है । यह वज्रक नामक तेल र्चिका शंधू दूर होजाते हैं । वन के समान है। लाक्षादि लेप। महावज्रक तैल लाक्षाव्योषं प्रायुनाटं च बीज एरंडतायधनीपकदधभार्गी सधीवेष्टं कुष्टसिद्धार्थकाश्च । कंपिल्लवेल्लफलिनीसुरवारुणीभिः । तकोन्मिश्रः स्याद्धारदा च लेपो दद्रुश्तो मुलकोत्थं च बीजम् ॥ निर्गुड्यरुष्कररावसुवर्णदुग्धा । श्रीवेष्टगुग्गुलुशिलापटुतालविश्वैः ॥ अर्थ- लाख, त्रिकुटा, पवाडके बीज, तुल्यस्नुगर्कदुग्ध सिद्ध तैल स्मृतं महावज्रम् । सरलकाष्ठ, कुडा, सफेद सरसों और हलदी For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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