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चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
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इससे अप्रवृत्त पित्त, वायु, स्वेद, विष्टा और | वाला पित्तपापडा इनका क्वाथ ठंडा करके मत्र का प्रवर्तन होता है, निद्रा, जडता पिलादेवे । इससे आम दोषका पाचन और
और अरुचि का नाश होजाता है, तथा / तृषा तथा ज्वरका नाश होजाता है। गरम जल प्राणों का अवलंबन है। परंतु | ज्वरमें पित्तविरुद्धका त्याग । शीतल जल पान करने से उक्त लक्षणों के | ऊष्मा पिताइते नास्ति ज्वरो नास्त्यूष्मणा
विना ॥१६॥ विपरीत होता है तथा दोषों का समूह तस्मात्पत्तविरुद्धानि त्यजेत्बढता है । जब वात द्वारा कफ शोपित
पित्ताधिकेऽधिकम् । होकर गाढा होजाता है, तब तृपा की ___ अर्थ-बिना पित्त के ऊष्मा नहीं हो उत्पत्ति होती है ।
सकती है और बिना ऊष्मा के ज्वर नहीं पित्तज्वरमें उष्ण जलका निषेध ।। हो सकता है, इसलिये सब प्रकार के उणमेवंगुणत्वेऽपि युज्यानैकांतपित्तले ॥ ज्वरों में पित्त के विरुद्ध आहार विहारादि उद्रिक्तपित्ते दवथुदाहमोहातिसारिणि ॥ त्याग देने चाहियें और पित्त की अधिकता विषमद्योस्थिते ग्रीष्मे क्षतक्षीणेऽसपित्तिनि।
वाले ज्वर में तो विशेष रूपसे त्याग देने अर्थ-इतने गुणों से युक्त होने पर भी
चाहिये । केवल पित्तमें वा केवल पित्तज्वरमें, वा पि
____ ज्वर में स्नानादि का निषेध । त्ताधिक्य ज्वरमें गरम जल न देना चाहिये। नानाभ्यंगप्रदेहांश्च परिशेषं चलंघनम् १५ तथा दवथु, ४ दाह, मोह, अतिसार, विषज्वर । अर्थ-ज्वर में केवल पित्त विरुद्ध आहार मद्यजनित ज्वर, ग्रीष्मऋतु, उरःक्षत, धातु- विहारादि का निषेध किया गया है वह क्षीण और रक्तपित्त इन सब रोगोंमें भी। इतना ही नहीं है किन्तु स्नान, अभ्यंग, उष्ण जल न देना चाहिये ।
चंदनादि लेपन और परिशेष लंघन भी - उद्रिक्त पित्त में शीतल जल ।
त्याग देने चाहिये । 'यलंघनमुपयुक्तमुपयाधनचंदनशुंठ्यंबु पर्पटोशीरसाधितम् ॥ सलक्षणं ततो यदन्यत्तत्परिशेषम् । शुद्धयाशीतं तेभ्यो हितं तोयं पाचनम्
चुकादश प्रकारंच तत्त्यजेत्" । उपवासरूप अर्थ-पूर्वोक्त पित्ताधिक्य ज्वर में तृषा
लंघन को छोडकर शुद्धयादि जो ग्यारह लंघन का वेग होने पर मोथा, रक्तचंदन, नेत्र
| कहे गये हैं उन्हीं को परिशेष कहते हैं ।
____ x अन्य ग्रंथों में पानी की विधि इस चक्षुरादिभ्यो यस्तोत्र ऊष्मा प्रर्बतते प्रकार लिखी है कि कर्ष गृहत्विा द्रव्यस्य सदबथुः सर्वाङ्गीणस्तीब्र ऊप्मादाहः।अर्थात् तोयस्य प्रस्थमावपेत् । अर्धावशेषं तद्ग्राह्य दवथु और दाहमें यह अंतर है कि नेत्रादि तोयपाने त्वयं विधिः । अर्थात् कर्ष भर
से जो तीव ऊष्मा निकलती है उसे दबथु सब औधष लेकर एक प्रस्थ जल में औ• कहते है और सर्वांगव्यापी तीब्र ऊष्मा को | टावै, जब आधा प्रस्थ रहजाय तब पीने के दाह कहते हैं।
| काममें लावै।
तहज
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