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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४५०) अष्टामहृदय । अ०१ - वा शिथिल हों, तथा हल्लास (जी मिचलाना) | करके, और वमन के अयोग्य ज्वररोगी को प्रसेक ( मुख में थूक भरना ) अन्न में | वमन न करके समुदीर्ण अर्थात् अच्छी अनिच्छा, खांसी, विसूचिका, ये सब उप- | तरह उत्पन्न हुए वातादि साम दोषों के द्रव विद्यमान हों इन बातों के होने पर ] पचाने के निमित्त और पुनर्वार उत्पन्न तथा भोजन करने के पीछे ज्वर उत्पन्न हुए निराम दोषों के शमन के निमित्त हुआ हो अथवा विशेष करके सामज्वर में । विशोषण अर्थात् लंघन कराना चाहिये। वमनार्ह ( बालक, बृद्ध वा गर्भिणी को ज्वरी को उपवास । छोडकर ) रोगी को वमन कसवै । उक्त आमेन भस्मनेवाग्नौ छन्नेऽन्नं न विपच्यते । विधि के विपरीत होने पर वमन कराने तस्मादादोषपचनाज्ज्वरितानुपवासयेत्॥ __ अर्थ-जैसे राख से ढकी वाह्य अग्नि से श्वास, अतीसार, मूर्छा, हृदयरोग और विषमज्वर उत्पन्न होजाते हैं। स्थालीस्थ जल और तंडुल को नहीं पका सकती है, इसी तरह आमरस युक्त वातादि बमनकारक द्रव्य । पिप्पलीभिर्युतान् गालान् कलिंगैमधुकेन वा दोष द्वारा आछन्न जठराग्नि आमाशयस्थ उष्णांभसा समुधना पिबेत्सलवणेन वा।। अन्न का परिपाक नहीं कर सकती है, पटोलनिवकर्कोटवेटपत्रोदकेन वा ॥७॥ | इसलिये जब तक साम दोष का परिपाक तर्पणेन रसेनेक्षोर्मधैः कल्पादितानि वा। न हो तब तक ज्वररोगी को लंघन कराना वमनानि प्रयुंजीत बलकालविभागवित् ॥ चाहिये। अर्थ-पीपल, अथवा इन्द्रजौ, अथवा वातकफ घरमें उष्णजलपान । मुलहटी के साथ अथवा मधुमिश्रित गरम तृष्णगल्पाल्पमुष्णांबु पिबेद्धातकफज्वरे। - जलके साथ अथवा नमकमिश्रित गरम जल तत्कर्फ विलयं नीत्वा तृष्णामासु निवर्तयेत् के साथ, अथवा परवल, नीम, कर्कोट वा | उदीर्य चाग्निं स्रोतांसि मृदूकृय विशोधबेत के पत्तोंके काथ के साथ, अथवा इक्षु येत्। रस के साथ, वा मद्य के साथ मेनफल लीनपित्तानिलस्वेदशकृन्मूत्रानुलोमनम् ॥ निद्राजाडयारुचिहरं प्राणानामबलंवनम् । देकर वमन कराबै वा वमनकल्पोक्त वमन | विपरीतमतः शतिं दोषसंघातवर्धनम् ॥ कराने वाले द्रव्य देवे । वमनकारक द्रव्यों अर्थ-वातकफ ज्वर में अर्थात् वातज्वर के देने में रोगी के बलाबल, अवस्था और | में, कमज्वर में वा वातकफचर में प्यास काल पर ध्यान रखना चाहिये । लगने पर रोगी को थोडा थोडा गरम जल वमन में विशोषण । पान करावे, क्योंकि उष्ण जल कफ को तेऽकते वा वभने ज्वरी कुर्याद्विशोषणम विलीन करके तृषा को शीघ्र शांत करदेता दोषाणां समुदीर्णानां पाचनाय शमाय च।। है, तथा जठराग्नि को प्रदीप्त करके स्रोतों अर्थ-वमन के योग्य ज्वररोगी को वमन | में मृदुता करके उनको विशुद्ध करदेता है For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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