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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४५२) अष्टांगहृदय । सामज्वर में शूलधन औषधका निषेध । | अस्थियों में शूल के समान वेदना होती है अजीर्ण इव शुलघ्नम् सामे तीव्ररुजि ज्वरे। और जो ज्वर वात कफसे उत्पन्नहै उसमें न पिवेदौषधं तद्धि भूयः एवाममावत् १८ पसीने देना हितहै । स्वेदन कर्मसे पसीने, आमाभिभूतकोष्टस्य क्षीरम् विषमहेरिव ।। मल, मूत्र और अधोवायु अच्छी तरह होने अर्थ-जैसे आमसहित अजीर्ण में तीव्र | लगते हैं और जठराग्नि की प्रदीप्ति होती है वेदना होने पर भी अन्य किसी उपद्रव की स्नेहविधिपालन । आशंका से शूलनाशिनी किसी औषधका स्नेहोक्तमाचारविधिं सर्वशश्चानुपालयेत् । सेवन करना उचित नहीं है वैसेही आम ___अर्थ-स्वेदन कर्मके पीछे स्नेहविधि संयुक्त ज्वर में तीव्र वेदना होने पर भी | अध्यायमें कहेहुए आचार व्यवहारादि हितकारी तत्काल आम के परिपाकार्थ मुस्तापर्पट्यादि नियमों का विधिपूर्वक पालन करे । औषधों से सिद्ध किया हुआ काथ सेवन मलों के पाचक द्रव्य । । करमा न चाहिये, क्योंकि वहु आम से | लंघनं स्वेदन कालो यवागूस्तिक्तको रसः। युक्त कोष्ठ में पान की हुई औषध परिपाक मलानां पाचनानि स्युर्यथावस्थं क्रमेण वा। को प्राप्त न होकर आमको ही भधिक अर्थ-साग वातादि दोष पृथक पृथकू वढाती है। यहां साम शब्द के प्रयोग से । स्थित हो, वा दो दो दोष मिलकर स्थित वहु आमका ग्रहण है क्योंकि अल्प अजीर्ण हो अथवा सन्निपात में स्थितहों, उनमें अमें तो औषध सेवन की आज्ञा दी गई है। वस्था के अनुसार लंघन, स्वेदन, काल, जैसे जीर्णेऽशनेतु भैषज्यं युंज्यात्स्तब्धगु. यवागू , और तिक्तरस ये पाचन है । अर्थात् रूदरे । दोषशेषस्य पाकार्थमग्नेः संधुक्षणा ज्वर की किसी अवस्था में लंघन मलका यच । यहां एक दृष्टांत भी है कि जैसे दूध पचानेवाला होताहै, किसी अवस्था में स्वेदविषनाशन होने पर भी वडे विषधर सर्पका क्रिया, किसी अवस्था में काल ( छः वा आठ विष नाश न करके उलटा उसे बढाता है, दिन ), किसी में यवागू और किसी में ऐसेही वहु आमावस्था में आमनाशक औ तिक्तरस । इस तरह अवस्थानुसार लंघनादि षध के सेवन से आमका नाश न होकर एक एक मलोंके पाचक होते हैं । अथवा आम बढता ही है । क्रमानुसार लंघनादि का प्रयोग करने पर उददादि ज्वर में स्वेद । भी आम का परिपाक होजाताहै, जैसे प्रथम सोदर्दपीनसश्वासे जंघापास्थिलिनि । लंघन और स्वेदनक्रिया करके छः दिन पीछे पातश्लेष्मात्मके स्वेदः प्रशस्तः संप्रवर्तयेत्। यवागू और तिक्तरस देनेसे अपक्व दोष का स्वेदमृत्रशद्वातान् कुर्यादग्नेश्च पाटवम् । परिपाक होजाताहै । अर्थ-जिस ज्वरमें उदर्द, पीनस और । ज्वरम लंघनका अपवाद । श्वास हो, तथा जिस ज्वरमें जंघा, पर्व और | शुद्धवातक्षयागंतुजीर्णज्वरिषु लंघनम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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