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- अ. ७
निदानस्थान भाषाटीकासमते ।
। अर्थ--प्रथम सर्व रोगनिदानाध्यायमें दो- | शिरःपृष्ठोरसां शूलमालस्यं भित्रवर्णता। षों के प्रकोपका कारण कहदिया गया है उ तथेंद्रियाणां दौर्वल्यं शोधो दुःखोपचारता । सी दोष प्रकोपके कारण से जठराग्नि मंद |
| आसंका ग्रहणीदोषपांडुगुल्मोदरेषु च ।
एतान्येव विवर्धतेजातेषु हतनामसु॥ पड जाती है, और जठराग्नि के मंद पडनेसे
__ अर्थ-अर्श के पूर्वरूप ये होते है, यथाअन्नका सम्यक् परिपाक न होने से मलकी | मदाग्नि, विष्टंभ, सक्थियों में शिथिलता, वृद्धि होती है । इस मलकी वृद्धिसे, अत्यन्त |
पिंडलियों में ऐंठन, भ्रम, अंग में शिथि. मैथुनसे, सदा सवारीपर चढनेसे, विषम, क
| लता, नेत्रों में सूजन, पुरीषभेद,पुरीषवद्धता, ठोर और उत्कट आसन पर बैठनेसे, तथा
वायुकी प्रचुरता, वायुकी मूढता, नामि से वस्तिके नेत्र, पत्थर, लोष्ठ, पृथ्वीतल, और नीचे वायुका संचार, वेदना, केंची से कत. वस्त्रद्वारा गुदा के रिगडनेसे, भत्यन्त शीत- रने कीसी पीड़ा, बहुत कष्ट से शब्द करती लजल के स्पर्शसे, निरंतर दोषोंके प्रर्वतनसे, दुई वायुका निकलना, अंत्रकूजन, अफरा, अधोवायु मूत्र और मलके उपस्थित वेगोंको क्षीणता, उकारों की अधिकता, मूत्रकी रोकने वा अनुपस्थित वेगोंको बलपूर्वक क- | अधिकता मल की अल्पता, भोजन रने से, ज्वर, गुल्म, अतिसार, आमदोष, प्र- में अनिच्छा, धूआंसा निकलना, अम्लोहणीरोग, सुजन और पांडुरोगों के कर्षणस, द्वार, शिर पीठ और वक्षःस्थलमें वेदना. विषम चेष्टाओंसे, स्त्रियों के आम गर्भ गिरने | आलस्य, देहमें विवर्णता, इन्द्रियोंमें दुर्वलता, से, वा गर्भकी वृद्धिके प्रपीडनसे, तथा ऐसे | क्रोध, इलाजकी कठिनता, तथा प्रहणीरोग, ही अन्य कारणोंसे, अपान वायु कुपित हो | पांडुरोग, गुल्मरोग, और उदररोग इनकी कर इकडे हुए मलको गुदाकी अवलिमें स्थि- आशंका ये सब लक्षण अर्शरोग की उत्पत करदेता है । और मलके अत्यन्त संपर्क त्ति से पहिले होते हैं । ग्रहणीसे आदिले. से गुदाकी अवलियां प्रकिन्न रहती हैं और कर सब रोग अर्शके उत्पन्न होने के पी , वहां मांसके अंकुर जम जाते हैं । इन्ही भ
बढते हैं। कुरों को अर्श कहते हैं ।।
___ अर्शरोगी का लक्षण । . अर्शका पूर्वरूप ।
निवर्तमानोऽपानोहि तैरधोमार्गरोधतः । तत्यूर्वलक्षणं मंदवह्निता ॥ क्षोभयन्ननिलानन्यान् सर्वेद्रियशरीरगान् । विष्टंभः सक्थिसदनं पिंडिकोद्वेष्टनं भ्रमः। यथामूत्रशकृत्पित्तकफान् धातूंश्च साशयान सादोऽगे नेत्रयोःशोफः शकतेंदोऽथवा ग्रहः मृद्रात्यभिंततः सर्वोभवति प्रायशोऽर्शसः। मारुतःप्रचुरो सूढः प्रायोन भेरधश्चरन् । कृशोभृशं हतोत्साहो दीनःक्षामोऽतिनिसरुक् सपरिकर्तश्च कृच्छ्रानिर्गच्छति
प्रभः। स्वनन् ॥ १७॥ | असारो विगतच्छायोजंतुजुष्ट इव दुमः॥ अंबकूजनमाटोपः क्षामतोदारभूरिता। कृत्यैरुपद्रवैर्घस्तो यथोक्तैर्मर्मपीडनैः । प्रभूतं मूत्रमल्पा विश्रद्धावैधूमकोऽम्लकः।' तथा कासपिपासास्यवरस्यश्वासपीनसैः ।
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