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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टांगहृदय । ( ३८२ ) बल्यः प्रवाहिणी तासामंतर्मध्ये विसर्जनी ॥ बाह्या संवरणी तस्या गुदोष्ठो बहिरंगुले | यवाध्यर्धप्रभाणेन रोमाण्यत्र ततः परम् ५॥ अर्थ - गुदा नाडी देहकी स्थूल अंत्रमें अवस्थित होती है, इसका प्रमाण साडेचार अंगुल का है, इसमें प्रवाहिणी, विर्सजनी और संवरणी तीन बलि अर्थात् आंटी हैं, इनमें से प्रवाहिणी भीतर है, विर्जसनी बीच में है और संवरणी बाहर है । हर एक बाल का प्रमाण डेढ अंगुल का होता है । इस संवरणी व के एक अंगुल नीचे गुदाका ओष्ट होता है, इसका प्रमाण डेढ जौका है इससे नीचे रोम होते हैं । उक्त कथन में हेतु । तत्र हेतुः सहोत्थानां बलबीजोपतप्तता । अर्शसां बीजाप्तस्तु मातापित्रपचारतः ॥ दैवाच्च ताभ्यां कोपो हि सन्निपातस्यनान्यतः । असाध्यान्येवमाख्याताः सवै रोगाः कुलोद्भवाः अर्थ- - ऊपर जो दो प्रकारके अर्श कहे गये हैं उनमें से सहज अर्शका हेतु बलिसंबंधी बीज अर्थात् शुक्रार्तव की उपसप्तता है । और अर्शविकार को उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य वाले वातपित्त कफसे पीडन होना बीजकी उपतप्तताहै । अर्थात सहज अर्श वातपित्तकफ द्वारा माता पिताके शुक्रार्तव के उपतप्त होने से होता है । अर्शके बीज की उपताप्ति का कारण मातपिता के आहारविहारादि अपचार होते हैं । मातापिता के अपचार और देवसे ( पूर्वजन्म कृत अशुभ कर्मसे ) सान्निपातिक अर्श होता है, यह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० असाध्य होता है । इसतरह कुलोद्भव संपूर्ण रोग बीजकी उपतप्तता से होते हैं इसलिये असाध्य भी हैं । अर्शमें रूक्षादि गुण । सहजानि विशेषेण रूक्षदुर्दर्शनानि च । अन्तर्मुखानि पांडूनि दारुणोपद्रवाणि च । अर्थ - सहज अर्श विशेष रूपसे रूक्ष दुर्दर्शनीय ( देखने में भयोत्पादक ), अंतर्मुख। भीतर को मुखत्राले ). पांडुवर्ण और दारुण उपद्रवों से युक्त होते हैं ( विशेष शब्दके कहने से यह अर्थ भी निकलता है कि उत्तरजात अर्शमें ये लक्षण होते हैं ) । उत्तरजात अर्शके भेद | पोढान्यानि पृथग्दोषसंवर्गनिश्चयात्रतः । शुष्काणिवातश्लेष्मभ्यामार्द्राणित्वस्रपित्ततः अर्थ - उत्तरजात अर्श छः प्रकार के होते है, यथा वातज, पित्तज, कफज, संसर्गज, त्रिदोषज और रक्तज । इनमें से शुष्क अर्श, वात और कफसे होते हैं | आईअर्श पित्त और रक्त से होते है | For Private And Personal Use Only अर्श की उत्पत्ति | दोषप्रकोपहेतुस्तु प्रागुक्तस्तेन सादिते । अग्नौ मलेऽतिनिचिते पुनश्चातिव्यवायतः ॥ यानसंक्षोभविषमकठिनोत्कटकासनात् । बस्तिनेत्राश्मलोष्टोर्वीतलचैलादिघट्टनात् ॥ भ्रशं शीतांबुसंस्पर्शात्प्रततातिप्रवाहणात् । वातमूत्रशकृद्वेगधारणात्तदुदीरणात् १२ ॥ ज्वरगुल्मातिसा रामग्रहणीशोफपांडुभिः । कर्शनाद्विषमाभ्यश्च चेष्टाभ्यो योषितां पुनः आमगर्भप्रपतनानर्भवृद्धिप्रपीडनात् । ईदृशैखापरैर्वायुरपानः कुपितो मलम् १४ पायोर्वलीषु संघते तास्वाभिष्यण्णमूर्तिषु । जायंते ऽर्शासि
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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