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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० ७ www.kobatirth.org निदानस्थान भाषांटीकासमेत । शीघ्रता की जाती है वैसेही सन्यास रोग में प्रसित मनुष्य को निकालकर शीघ्र रक्षा करनी चाहिये | मद्यसेमद्यका उपसंहार । मदमान रोषतोषप्रभृतिभिररिभिर्निजैः परिष्वंगः | युक्तायुक्तं च समंयुक्तिवियुक्तेन मद्येन ॥ ४० ॥ अर्थ-युक्ति से विपरीत मद्यपान द्वारा मद, मान, रोष और तोष आदि दृष्ट और अदृष्ट विनाशकारी निज शत्रुओं का विषेश संबंध होता हैं, अर्थात् ये सदा ही अनिष्ट करते हैं और केवल मदादि शत्रुगण का जो अधिक संश्लेष होता है यह भी नहीं है । युक्तिविरुद्ध मद्यपानद्वारा वैध अवैध मद्यपान का फल भी समान होता है, अर्थात् उस समय वैध मद्यपान का भी फल नहीं होता है । अन्य युक्ति | बलकालदेशसात्म्यप्रकृतिसहायामयवयांसि । प्रविभज्य तदनुरूपं यदि पिबति ततः पिबत्यमृतम्, ४१ ॥ अर्थ-जो मनुष्य अपने शाररिक बल, हेमंतादि काल, देश, सात्म्य, प्रकृति, सहाय, रोग और वयं इन सब बातों का विचार करके जो मद्यपान करता है वह अमृत तुल्य मद्य पीता है । इतिश्री अष्टांगहृदये भाषा टीकायां मदात्यय निदानंनाम षष्ठोऽध्यायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 ( ३८१ ) अथाऽर्शसां निदानम् व्याख्यास्यामः । अर्थ - अव हम यहां से अर्शनिदान नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । सप्तमोऽध्यायः । अर्शका नाम निर्वचन | 'अरिवत्प्राणिनो मांसकीलकाविशसंति यत् अशसि तस्मादुच्यते गुदमार्गनिरोधतः १ दोषास्त्स्व मां समदांसि संदृष्य विविधाकृतीन् । मांसां कुरानपानादौ कुर्वेत्यशसि तान् जगुः अर्थ-मांसकी कील अर्थात अंकुर गुदा के द्वार को रोककर शत्रुकी तरह प्राणों का नाश करते हैं, इसलिये इन्हें अर्श कहते हैं । वातादि तीनों दोष त्वचा, मांस और मेद को दूषित करके गुदा, कान और नाक में अनेक आकृतिवाले मांस के अंकुरों को उत्पन्न करते हैं । इन मांसांकुरों को अर्श कहते हैं । For Private And Personal Use Only अर्शके दो भेद | सहजन्मोत्तरोत्थानभेदाद्वेधा समासतः । शुष्कत्राविविभेदाच्च अर्थ - अर्श सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं एक सहज ( शरीर के संग उत्पन्न होने वाले ), दूसरे जन्मोत्तरोत्थान ( जन्म लेने के पीछे उत्पन्न होने वाले ) । इन्हीं के दो भेद और भी है एक शुष्क ( बादी ववासीर), दूसरी स्रावी ( खूनी बवासीर ) | गुदाकी अबालियों का वर्णन गुदुःस्थूलां संभयः ॥ २ ॥ अर्धपञ्चांगुलस्तस्मिस्तिस्रोऽध्यर्धा गुलाः स्थिताः ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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