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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९५४) मष्टांगहृदप । तथास्येच निर्दिष्टास्तथा दूपीविषापहाः रोगी को स्नान । अर्थ-चहे के बिष में अबस्थांनुसार समंत्र सौषधीरनं सपन च प्रयोजयेत् ॥ . विबेचमा कस्के सब प्रकार की क्रिया करनी अर्थ-सर्वोषधी, महौषधी, रक्तसंयुक्त चाहिये । तथा दूषी विषनाशक जो जो अभिमंत्रित जल से कुत्ते से काटेहुए रोगीको चिकित्सा कहांमई है वह भी करनी | स्नान करावै । आवश्यकीय है। चतुष्पदादिकों का दंश । कुत्ते के काटने पर लेप । चतुष्पाद्भिदिपाद्भिर्वा नसदसपरिक्षतम् । दशं खलबष्टस्य बग्धमुष्णेन सर्पिषा।। शंयते पच्यते रागज्वरनापरुजान्वितम्। माविह्यावर्गवैस्तैस्तैः पुराणं च धृतं पिवेत् ॥ ___ अर्थ-हाथी घोड़े आदि चौपाये जानवर, मर्थ-कुचे के काटेहुए स्थान पर गरम घी से दग्ध को, पीछे पूर्वोक्त औषधों का मनुष्य और मुर्गे आदि दो पैरवाले जीव इनके पकरे और पुराने बी को पावै । नख और दांत द्वारा जो घाव होजाताहै, उसमें सूजन और पाक पैदा हो जाता है । ... उक्त रोम पर विरेचन । मर्कक्षारयुतं चाऽस्य योज्यमाशु विरेचनम् तथा ललाई, ज्वर, स्राव और वेदना से ___ अर्थ-इस रोग पर विरेचनादि द्रव्यों में | युक्त होता है । आक का दूध मिलाकर शीघ्र विरेचन देना । उक्त रोगपर लेप । चाहिये। सोमवल्कोवकर्णश्च गोजिला हंसपादिका अन्य उपाय। रजम्यो गैरिकं लेपो नखदंतविषापहः ॥ कोलोत्तरमूलाबु धिफला सहविः पलम्॥ अर्थ-सफेद खैर, अश्वकर्ण, गोभी, विवेत्सवत्सरफला श्वतां वाऽपि पुनर्नवाम् । हंसपदी, हलदी, दारुहलदी, और गेरू इन अर्थ-अंकोल और इन्द्रायण की जडू का लेप करने से नख और दांत के विष का काथ, सीन पल और घी एक पल इन | दर होजाते हैं। को मिलाकर अथवा धतूरे का फल और इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषायीसफेद भपराजिता अथवा धतूरे का फळ और कान्वितायो उत्तरस्थानेमूषिकालर्कविषसोक इनको जल में पीसकर पान करै । . प्रविषेधंनाम अष्टात्रिंशोऽध्यायः । . विषमालर्क भेदक पान । ऐकम्य पललं तैलं रूषिकायाः पयो गुडः॥ भिनाति विषमाल घनदमिवामिळः। । एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः। अर्थ-भुने हुए तिलों का चूर्ण, तेल, आक का दूध, गुड़, इन सब द्रव्यों को मिलाकर जल के साथ पान कराने से बावले. अथाऽतो रसायनाध्यायं व्याख्यास्यामः । कत्ते का बिष ऐसे नष्ट होजाता है जैसे हवा अर्थ-अब हम यहां से रसायनाध्याय के वेग से बादलों के समूह । की व्याख्या करेंगे। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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