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म. ३९
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(९५५)
रसापन से दीर्घ जीवनादि। । रसायन में स्थान । दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्य तरुणं पयः। निर्वात निर्भये हम्ये प्राप्योपकरणे पुरे । प्रभाषर्णस्वरोदार्य देहेद्रियवलोदयम् ॥ | दिश्युदीच्या शुभेदेशत्रिगर्भासूक्ष्मलोचनाम् वाक्सिविषतांकांतिमयामोतिरसायनात् | धूमातपरजोव्यालखीमूखायापलीघताम् । लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनारसायनम् सजवैद्योपकरणां सुमृष्टां कारयेत्कुटीम् ॥
अथे-रसायन से दीर्घायु, स्मृति, मेधा, अर्थ-उत्तर दिशाकी ओर किसी शुभ आरोग्य, तरुणावस्था, प्रभा, वर्ण, स्वर की स्थान में एक ऐसा स्थान बनवावै, जिसमें निर्मलता, देह, इन्द्रिय और बल की वृद्धि, हवा का प्रवेश न हो सकता हो और किसी वाकसिद्धि, वीर्य की आधिकता और कांति प्रकारका भय भी न हो, इस घरमें संपूर्ण प्राप्त होते हैं, इससे रसरक्तादि श्रेष्ट धातुओं आवश्यकीय सामग्री एकत्रित करदेनी चाहिये की प्राप्ति होती है इस लिये इसे रसायन यह घर त्रिगर्भ अर्थात् घरके भीतर घर और कहते हैं।
फिर उस घर के भीतर घर हो जिसमें छोटे रसायन प्रयोग।
छिद्रवाले जालीदार झरोखे लगे हुए हों, इस पूर्षे वयसि मध्ये वा तत्प्रयोज्यं जितात्मनः।
घरमें सफेदी करादेनी चाहिये । इस कोठरी बिग्धस्य नुतरक्तस्य विशुद्धस्य व सर्वथा
के भीतर वैद्यौपयोमी सव सामान एकत्रित ___ अर्थ-जो मनुष्य स्नेहन और रक्तमोक्षण
करे और ऐमा यत्न करे कि धूआं, धूप, से शुद्ध हो चुका हो और जिसको घमन विरेचन भी देदिया मयाहा, तथा जितेन्द्रि.
धूलि, वा किसी प्रकार का कोई हिंसकजीव, यतासे रहताहो, उसे प्रथमावस्था और मध्या
| स्त्री वा मूर्ख प्रवेश न कर सके । . वस्था में रसायन का सेवन कराना चाहिये ।।
रसायनारंभ में कर्तव्य । । । रसायन का निष्फल होना।
अथ पुण्येऽह्निसपूज्यपूज्यांस्तांप्रविशेच्छषि
तत्र संशोधनः शुद्धःसुखी जातवलः पुनः । भविशुद्ध शरीरे हि युक्तो रासायनो विधिः |
ब्रह्मचारी धृतियुतः श्रधानो जितेंद्रियः । पाजीकरो वा मलिने वस्त्रे रंग हवाफलः ॥
दानशीलदयासत्यव्रतधर्मपरायणः ॥९॥ अर्थ-बमनविरेचनादि से शुद्ध किये । देवतानुस्मृतौ युक्तो युक्तस्वप्नप्रजागरः विना रसायनं पावाजीकरण का सेवन ऐसे | प्रियोषधः पेशलवाकू मारभेत रसायनम् ॥ निष्फल हो जाता है, जैसे मैलेवस्त्र पर रंग अर्थ-शुभदिनमें स्नानादि द्वारा पवित्र चढाना निष्फल होता है।
होकर स्वस्तिवाचनपूर्वक देव द्विज गुरु आदि रसायनके दो प्रयोग।
पूज्यों की पूजा करके उस घरमें प्रवेश करे । रसायनानां द्विविध प्रयोगमपयो बिदुः । कुटीप्रायशिकं मुख्य बातातपिकमन्यथा
तदनंतर विरेचनादि संशोधन क्रिया द्वारा अर्थ-ऋषियों ने स्सायन के दो प्रयोग
शुद्ध देह तथा सर्वरोगनाशक शिलाजीत और कहे हैं, इनमें से कुटीप्रावेशिक मुख्य है। च्यवनप्राशादि औषधों का सेवन करके नि: और पातातपिक अप्रधान है।
रोग होकर बलको प्राप्त करे । तदनन्तर
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