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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९५६) मष्टांगहृदय । ब्रह्मचर्य, धैर्य, श्रद्धा, जितेन्द्रियता, दानशी. ब्राह्मरसायन । लता,सत्स्वभाव, दया, सत्यव्रत, धर्मपरायणता | पथ्यासहस्रं त्रिगुणधात्रीफलसमन्वितम् । देवभक्ति, यथासमय शयन करना और जगना पंचानां पंचमूलानां साधै पलशतद्वयम् ॥ जले दशगुणे पक्त्वा दशभागास्थिते रसे । औषधप्रियता और मधुरभाषण । इन सब आपोथ्य कृत्वा ब्यस्थीनि विजयामलकान्यथ कामों को रसायन के आरंभके समय करै । विनीय तस्मिनियह योजयेत्कुड़वांशकम् । विरेचन विधि । स्वगेलामुस्तरजनीपिप्पल्लथगुरुचंदनम् ॥ मंडूकपर्णीकमफशंखपुष्पीवचाप्लवम् ॥ हरीतकीमामलकं संधर्व नागरं बवाम् । हरिद्रा पिप्पली वेल्लं गुडं चोष्णांवुना पिवेत् यष्टयाह्वयं विंडगं च चूर्णितं तुलयाधिकम् सितोपलार्धभारंच पात्राणि त्रीणि सर्पिषः स्निग्धा स्विन्नो मा पूर्व तेन साधु विरिच्यते द्वे च तेलात् पचेत्सर्व तदनौ लेहतां गतम् ___ अर्थ-स्निग्ध और स्विन्न होकर प्रथम अवतीर्ण हिम युज्याद्विशैः क्षौद्रशतनिभिः ही हरड, आमला, सेंधानमक, सोंठ, बच, ततः सजेन मथितं निदध्यादू घृतभाजने ॥ हलदी, पीपल, बायबिडंग और गुड इन सब यानोपरुध्यादाहारमेकं मात्रास्य सा स्मृता षष्ठिकः पयसा चाऽनर्णि भोजनमिप्यते द्रव्यों को गरम जलके साथ पान करे । इस वैखानसावालखिल्यास्तथाचाऽन्येतपोधनाः से उत्तम विरेचन हो जाता है। ब्रह्मणा विहितं धन्यमिदं प्राश्य रसायमम् । _ यावक पयोग। संद्राश्रमक्लमवलीपलितामयर्जिताः। तता शुद्धशरीराय कृतसंसर्जनाय च ॥ मेधास्मृतिबलोपेता वभूखुरमितायुषः ॥ त्रिरात्रं पंचरात्र या सप्ताह वा घृतान्बितम् । अर्थ-हरड एक सहस्त्र, आमला तीन दद्याधावकमाशुद्धः पुराणशकृतोऽथवा ॥ | सहस्र, पांचों प्रकार के पंचमुल २५० पल अर्थ-विरेचनद्वारा शरीर के अच्छी तरह | इन सबसे दसगुना पानी डालकर औटावे, शुद्ध होने पर संसर्जनकी व्यवस्था करें फिर | जब दसवां भाग शेष रहजाय तव उतार तीन, पांच, वा सातदिन तक अथवा जब | कर छानले । सदनंतर हरड और आमले तक पुराने पलकी शुद्धि न हो तब तक की गुठलियों को दूर करके छिलकों को धृतयुक्त यावक देना चाहिये । सिल पर पीसले । और दालचीनी इलायची रसायन प्रयोग। मोथा, हलदी, पीपल, अगर, रक्तचंदन, इत्थ संस्कृतकोष्ठस्य रसायनमुपाहरेत्। मंडूकपर्णी, नागकेसर, शंखपुष्पी, बच, मडूकपणा, नागकसर २ यस्ययद्योगिकंपश्येत्सर्वमालोच्यसाम्यवित क्षुद्रमोथा, मुलहटी, वायबिडंग । ये सब अर्थ-इस तरह कोष्ठ का संस्कार कर | द्रव्य प्रत्येक एक कुडब, शर्करा ग्यारह तुला, के सात्म्यवित् वैद्यको उचित है कि संपूर्ण घी तीन पात्र, तेल दो पात्र । इन सबको वातों पर ध्यान देकर ये गिक रसायनों की पूर्वोक्त काढे में मिलाकर फिर पकावे, जब सात्म्यता का विचार करे । और उसीको चाटने के योग्य गढा होजाय तब उतार संग्रह करे । . . | कर रखले और ठंडा होने पर तीनसौ बीस . For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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