SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. ७ निदानस्थान भाषाटीकासमेत । [३८७ ] अर्श का साध्यासाध्यत्व । नाभिज अर्श । सहजानि त्रिदोषणि यानि चाभ्यंतरे बली। नाभिजानि तु। स्थितानि तान्यसाध्यानियाप्यतेऽग्नि गंडूपदास्यरूपाणि पिच्छिलानि मृदूनिच॥ बलादिभिः ॥ ५३॥ । अर्थ-जो अर्श नाभि में होता है वह अर्थ-सहज अर्श, वा जन्मधारण के | केंचए के मुख के सदृश तथा पिच्छिल पीछे त्रिदोपसे उत्पन्न हुए अर्श, तथा भीतर | और कोमल होता है। वाली वलि में उत्पन्न अर्श असाध्य होता चर्मकील के लक्षण । है। परंतु यदि अग्निवल, और आयु शेष | व्यानो गृहीत्वा श्लेष्माणं करोत्यर्शस्त्वचोहो तथा चिकित्सा के चारपद ( कुशल बहिः । वैद्य, उपयुक्त औषध, अनुकूल परिचारक कीलोपमं स्थिरखरं चर्मकीलं तु तं विदुः॥ और विश्वासी रोगी) उपस्थित हो तो अर्थ-व्यान वायु कफ का आश्रय ले कर त्वचा के ऊपर कील के सदृश स्थिर असाध्य भी कष्टसाध्य होजाता है। और कर्कश मांसके अंकुरों को उत्पन्न कर कृच्छ्रसाध्य अर्श। देती है, इनको चर्मकील वा मस्सा कहतेहैं। द्वंद्वजानि द्वितियायांवलौ यान्याश्रितानि च । कृच्छ्रसाध्यानि तान्याहुः परिसंवत्सराण च वातजादि चर्मकील । ___ अर्थ-जो अर्श द्वन्द्वज दोषों से उत्पन्न | वातेन तोदः पारुष्यं पित्तादसितरक्तता। होते हैं, वा गुदा की दूसरी वलि में होते श्लेष्मणा स्निग्धतातस्य ग्रंथितत्वं सवर्णता ____ अर्थ-वात से उत्पन्न चर्मकाल में सुई हैं वा जो एक वर्ष के आधिक पुराने होगये चुभने की सी वेदना और कर्कशता, पित्त हैं वे कष्टसाध्य हैं। जनित चर्मकाल में कालापन और बलाई मुखसाध्य अर्श। तथा कफजन्य में स्निग्ध गांठ और त्वचा बाह्यायां तु बलौ जातान्येकदोषोल्पणानि च के रंगकी सदृशता होती है। अशासि सुखसाध्यानिम घिरोत्पतितानि च अर्श में उपाय । __ अर्थ-जो अर्श गुदा के बाहर की वलि अर्शसां प्रशमे यत्नमाशु कुर्वीत बुद्धिमान् । में होते हैं, जो एक दोषसे उत्पन्न हुए हैं तान्याशु हि गुदं वध्वा कुर्युर्वछगुदोदरम्, और जो बहुत दिनके नहीं है वह सुख ___ अर्थ-बुद्धिमान् को उचित है कि अर्श साध्य हैं। रोग की चिकित्सा शीघ्रतापूर्वक बडे यत्न मंदादिजन्य अर्श के लक्षण । से करे । चिकित्सा में शीघ्रता न मेट्रादिग्वपि वक्ष्यते यथास्वम् करने से सव मांसांकुर गुदा के द्वार को ___ अर्थ-मेढू, भग, नासिका, कान आदि रोककर बद्धगुदोदर नामक रोग को पैदा में जो भर्श होते हैं उनका वर्णन उनके | कर देते हैं। प्रकरण में किया जायगा। इति सप्तमोऽध्यायः । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy