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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३८८] अष्टांगहृदय । अ०८ मुत्र का वेग रोकनेसे, तथा ऐसेही वातप्रअष्टमोऽध्यायः कोपक अन्य हेतुओं से वायु कुपित होकर शरीरस्थ जलसंबंधी धातुको नीचको स्राव करती है और जब वह जलीयधातु कोष्ठस्थ अथातोऽतीसारग्रहणीरोगयोनिदानं मलके समीप पहुंच जाती है तब जठराग्नि व्याख्यास्यामः। अर्थ-अब हम यहांसे अतोसार और ग्र को बुझाने लगती है और उसी धातुसे महणी रोग निदाननामक अध्यायकी व्याख्या ल को पतला करके अतिसार उत्पन्न कर करेंगे। देती है। ___ अतीसारके छः भेद । __ अतिसारका पूर्वरूप। लक्षणं तस्य भाविनः॥४॥ "दोषैर्व्यस्तैःसमस्तैश्चभयाच्छोकाच्चपविधः तोदो हृद्गुदकोष्ठेषु गात्रसादो मलग्रहः । अतीसारः आध्मानमविपाकश्च अर्थ-पृथक् पृथक् वातादि दोषोंसे तीन । अर्थ-जिस मनुष्यके अतिसार होनेवाप्रकार, तीनों मिलकर अर्थात् सन्निपात से । ला होता है उसके हृदय, गुदा और कोष्ठ एक प्रकार, तथा भय और शोकसे दो प्रकार, में सुई छिदने की सी वेदना होती है, देह अर्थात् सब मिलाकर अतिसार के छः भेद | शिथिल पड जाती है, मलका विवंध, आहैं। यथा- वातिक, पैत्तिक, इलैष्मिक, सा- मान और अन्नका अपरिपाक होता है। निपातिक, भयज, और शोकज । ये सब अतिसार के पूर्वरूप होते हैं । - अतिसारकी उत्पत्ति । वातज अतिसारके लक्षण । ससुतरां जायतेऽत्यंवुपामतः।१। . तत्र वातेन विजलम् ॥५॥ कृशशुष्कामिषासात्म्यतिलापिष्टविरूढकैः । अल्पाल्पं शब्दशुलाढ्यं विवद्धमुपवेश्यते । मद्यरूक्षातिमात्रान्नरशभिः स्नेहविभ्रमात् । रूक्षं सफेनमच्छं च प्रथितं वा मुहुर्मुहुः।६। कामभ्यो वेगरोधाच्च तद्विधः कपितामिल तथा दग्धगुडाभास सपिच्छापरिकर्तिकम। विस्त्रंसयत्यधोऽधातुं हत्वा तेनैव चानलम् शुष्कास्यो भ्रष्टपायुश्च हृष्टरोमा बिनिष्टनन् । व्यापद्यानुशकृत्कोष्ठं पुरषिं द्रवतां नयन् । __ अर्थ-उक्त छः प्रकारके अतिसारोंमें जप्रकल्पतेऽतिसाराय लवत, थोडा थोडा, शब्द और शूलसे युक्त, __ अर्थ-अधिक जल पीनेसे, कृश पशुका | बंधा हुआ, रूक्ष, झागदार, पतली, छोटी मांस, सूखा मांस, असात्म्य भोजन, तिल, छोटी गांठोंसे युक्त, बार बार जले हुए गुड पिष्टक, विरूढ ( अंकुरित अन्न , मद्यपान, के समान, पिच्छिल, कतरने की सी पीडा रूक्षभोजन, अतिमात्रभोजन, अर्श, स्नेहवि . से संयुक्त मल निकलता है । इसमें रोगीका भ्रम ( वमनविरेचन अनुवासन और निरूहा मुख सूख जाता है । गुदा विदीर्ण हो जाती र्थ स्नेहक्रियाका अतियोग वा अल्पयोग), है । रोमांच खडे होजाते हैं और कुपित सा इन सब वस्तुओंके सेवनसे, कृमिरोगसे, मल । मालूम होता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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