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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांगहृदय । भ. ३४ त्र्यहाध्यहात्स्थूलतरां नस्यनाडी विवर्धयेत् | अर्थ-सब प्रकार के लिंगरोगों में रोगकी स्रोतोद्वारमसिद्धौतु विद्वान् शस्त्रेणपाटयेत् | अवस्था के अनुसार अंतःशुद्धि, कषाय, लेप, सेवनी वर्जयन युज्यात्सद्यःक्षतविधि ततः॥ अर्थ-विरुद्वमणि नामक लिंगरोग में एक | घृत, तैल, रसक्रिया, चूर्ण,शोधन और रोप णादि द्वारा घावका उपचार करे ॥ लोहे वा काठका बनाहुआ दो मुखवाला नल योनिव्यापत् में चिकित्सा । लेकर उस पर लाख का लेप करदे और ! । योनिब्यापत्सु भूयिष्ठं शस्यते फर्म वातजित् घी चुपडकर उसको लिंगेन्द्रिय के स्रोत में | स्नेहनस्वदेवस्त्यादिवातजासु विशेषतः ॥ लगा देवै । फिर इस नलमें होकर वातनाशक । . अर्थ-योनिव्यापत् रोग समूहों में बहुधा बलादि तेलका सेचन करे । तीनदिन पीले । वातनाशिनी क्रिया करनी चाहिये । वातज. और भी मोटा नल लिंगस्रोत में प्रविष्ट करके | नितयोनिव्यापद् में स्नेहन, स्वेदन, और स्रोतका मुख बढावै । इससे भी फलसिद्धि न | वस्ति आदि का प्रयोग विशेषरूप से होने पर बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि करना चाहिये । । । सीमन को छोडकर शस्त्रसे चीर डाले, फिर । उक्त क्रिया में हेतु । तत्काल घावके समान चिकित्सा करने में | नहि वाताहते योनिर्वनितानां प्रदुष्यति । प्रवृत हो । मतो जित्वा तमन्यस्य कुर्यादोषस्य भेषजम् 1. ग्रंथित की चिकित्सा। अर्थ-वात के सिवाय और किसी कारण प्रथित स्वेदितं नाड्या निग्धोष्णरुपनाहयेत् से स्त्री की योनि दृषित नहीं होसकती है। .. अर्थ-ग्रंथित रोगों नाडीस्वेद देकर उस इसलिये प्रथम यातको जीतकर फिर अन्य पर स्निग्ध और उष्ण उपनाह का प्रयोग चिकित्सा में प्रवृत होना चाहिये । करै । नलके द्वारा भाफ पहुंचाकर जो स्वेद वलातलादि का प्रयोग । दिया जाता है उसे नाडीस्वेद कहते हैं। पाययेत वलातैलं मिश्रकं सुकुमारकम् । शतपोनक का उपाय। स्निग्धस्विनां तथा योनि दुःस्थितां लिपेत्कषायैः सक्षौद्रलिखित्वा शतपोनकम्॥ स्थापयेत्समाम् ।। पाणिनोनमयेज्जिमां संवृत्तां व्यधयेत्पुनः। अर्थ-शतपोनक नाम लिंगरोग को शस्त्रसे प्रवेशयेन्निऽस्तां च विवृतां परिवर्तयेत् ॥ छीलकर कपाय द्रव्या के चूर्ण में शहत | स्थानापवृत्ता योनिहि शल्यभूतास्त्रियोभवेत् मिलाकर लेपन करे। अर्थ-योगिव्यापत् से ग्रस्त स्त्री को - रक्ताद का उपाय । रक्तविद्रधिवत्कार्या चिकित्सा शोणितावंदे वलातेल, मिश्रक, वा सुकुमार नामक स्नेह पान कराना चाहिये । तथा दुःस्थित योनि अर्थ- रक्तावुदमें रक्तविद्रधि के समान चिकित्सा करना उचित हैं। को स्निग्ध और स्विन्न करके समान भाव ( अवस्थानुसार उपचार। | में स्थापित करे | कुटिल योनिको हाथ से नणोपचारं सर्वेषु यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥ | मवादे । संवृत योनिको प्रसारित करके For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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