________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(१४२)
अष्टांगहृदयम् ।
अ०१४
भितः।
कोलीकरंबविरलामधुकं मधूकम् ४१ ॥ शंखनी चर्मसाहून्यग्रोधादिर्गणो वृण्यः संग्राही भन्नसाधनः स्वर्णक्षीरी गवाक्षी शिखरिरजनकमेदापिसानतृट्दाहयोनिरोगनिवर्हणः ४२॥ | च्छिन्नरोहाकरंजाः ।
अर्थ- बटवृक्ष, पीपल, गूलर, दोनों बस्तांत्री व्याधिघातो बहलवहुरसलोध, दोनों जामन, अर्जुन, आमडा, सफेद | स्तीक्ष्णवृक्षात् फलानिखैर, प्लक्ष, आम,वेत, पियाल,पलास, नंदी
श्यामाधौ हंति गुल्मं विषमरुचिकफी
हृदुजं मूत्रकृच्छ्रम् ॥४५॥ वृक्ष, झडबेरी, कदंब, तिंदुकी, मुलहटी
अर्थ- निसोथ, दती, द्रवंती (उंदरकनी और महुआ के फूल | ये सब न्यग्रोधादि पठानी लोध, सफेद निसाथ, यवातक्ता, गण की औषध व्रणको हितकारी, संग्राही, सातला, स्वर्णक्षीरी, गवाक्षी, [ इन्द्रायण ] टूटे को जोड़नेवाली, तथा मदरोग, रक्त, ओंगा, कंपिल्लक, अमरवेल, कंजा, वृषगंध, पित्त, तृषा, दाह और योनिरोगों को दूर
अमलतास, ईख, और पीलूके फल । यह करती हैं।
श्यामादिगण गुल्मरोग, विषमज्वर, अरुचि, एलादिगण ।
कफ, हृद्रोग और मूत्रकृच्छ को दूर करताहै । एलायुग्मतुरष्ककुष्ठफीलनीमांसीजलध्यामकं
__ प्रयोगविधि । स्पृक्काचौरकचोचपत्रतगरस्थाणेयजातीरसः शुक्तिया॑वनखोऽमराहूमगुरुःश्रीवासककुंकुम त चडागुग्गुलु देवधूपखपुराः पुनागनागाहयम | युज्यातद्विधमन्यञ्च द्रव्यं जह्यादयोगिकम्॥ एलादिको वातकफौ विषं च विनियच्छति । अथे- ये तेतीस प्रकारके योग कहेगये घर्णप्रसादनः कंडूपिटिकाकोउनाशनः ४२ ॥ हैं, इनमें से जो जो औषध न मिल सके तो ___ अर्थ- दोनों इलायची, शिलारस, कुठ, उसकी जगह रसवीर्य विपाकादि समानगुण गंधप्रियंगु, जटामांसी, नेत्रवाला, भ्यामक, वाली अन्य औषधोंका प्रयोग करै किन्तु ( रोहिषतृण ), स्पृक्का ( गंधपर्णी ), चोरक अयोगिक द्रव्य काममें न लाना चाहिये ( ग्रन्थपर्णी ) चोच ( दालचीनी ) तगर, | यह तेतीस की संख्या केवल प्रधानता दितैलपीतक, बोल, नख, समुद्रझाग, देवदारू खाने के लिये कही गईहै, इससे यह न अगर. श्रीवासक ( सरलवृक्ष का निर्यास ).. समझ लेना चाहिये कि इन गणों में जो कुंकुम, कोपना, गूगल, राल, कुंदरुक,
औषध लिखी गई है उन्हीं का प्रयोग किया लालकेसर, नागकेसर, यह एलादिगण,
| जाताहै । देश, काल और रोग की अवस्था वात, कफ, विष, खुजली, पिटिका, और
देखकर एक दो वा बहुतसी औषध मिलाकर कोठ रोगों को दूर करताहै । तथा शरीरके
दीजातीहै, सुश्रुतमें भी कहाहै " समीक्ष्य वर्णको स्वच्छ करताहै ।
दोषभेदांश्च गणान् भिन्नान् प्रयोजयेत् । __ श्यामादिगण ।
पृथक् मिश्रान् समस्तांश्च गणान् वा व्यस्तश्यामा दन्ती द्रवंतीक्रमुकछुटरगी.. | संहतानिति” ॥
For Private And Personal Use Only