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सूत्रस्थान भाषाकासमेत पानादि प्रकारसे रोगनाशनत्व। | जानवरों का मांस हलका होने पर भी एते वर्गा दोषदृष्याद्यपेक्ष्य
स्नेहन है । मछली और भंस का मांस उकल्कक्वाथस्नेहलेहादियुक्ताः ।
ष्ण होने पर भी स्नेहन है । इसी तरह पाने नस्येऽन्वासनेऽतर्वहिवालेपाभ्यंगैतिरोगान् सुकृच्छ्रान् ४७ ॥
जो गुरु, शीत, सरादि गुणयुक्त होने पर भी अर्थ-दोष, दृष्य, घय. वलादि की वि- बिरूक्षण है। धेचना करके ये सब वर्ग पाने में, नस्यमें, । स्नेहनमें घृतादिको उत्तमता । वाहर वा भातर के सेवनमें, कल्क, काथ, | सर्पिर्मज्जावसातैलं स्नेहेषु प्रवर मतम् । स्नेह, लेह, लेप और अभ्यंग रूप में प्रयोग
| तन्नाऽपिचोत्तमंसर्पि:संस्कारस्याऽनुवर्तनात् "करने चाहिये । इससे अत्यन्त कष्टसाध्य
___ अर्थ-जितने प्रकार के स्नेह पदार्थ हैं रोग भी निवारित हो जाते हैं । उन में घृत, मज्जा, वसा और तेल ही इतिश्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां
श्रेष्ठ होते हैं । इन चारों में घृत सर्वोत्तम है पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
कारण यह है कि घृत संस्कार का अनुव. र्तन करता है, अर्थात् इसका जिस जिस
के साथ पाक किया जाता है, उसी के गुषोडशोऽध्यायः । ण इस में आजाते हैं और अपने शैत्यादि
गुण का त्याग नहीं करता है. किन्तु वर्मा, अथाऽतःस्नेहविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः ।
मज्जा और तेल संस्कार से अपने गुण को
त्याग कर देते हैं, इसी लिये घत ही सर्वोअर्थ-अब हम यहां से स्नेहबिधि ना. मक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
घृतादि को पित्तनाशकता । स्नेहनविलक्षण का स्वरूप ।। "गुरुशीतसरस्निग्धमंदसूक्ष्ममृद्रवम ॥२ / पित्तघ्नास्तेयथापूर्वभितरघ्नायथोत्तरम । औषधं नेहनं प्रायो बिपरीतं विलक्षणम् ॥
अर्थ- वत, मज्जा, वसा और तैल इन अर्थ- गुरु, शीतल, स्निग्ध, मंद, मृदु, | मेंसे यथापूर्व अधिक अधिक पित्तनाशक हैं और द्रव इन गुणों से युक्त औषधे प्रायः । तथा यथोत्तर अधिक अधिक वातकफ नास्नेहन होती हैं । इसी तरह इन गणों से शकहैं । इस जगह ऐसा प्रष्ण उठताहै कि विपरीत अर्थात् लघु, उष्ण, स्थिर, रूक्ष, यथापूर्व कहने में घी का त्याग करदैना चातीक्ष्ण, कठिन और घन गुण युक्त द्रव्य हिये, क्योंकि तेल किसी के पूर्व नहीं है प्रायः बिरूक्षण होते हैं । प्रायः शब्द के | अर्थात् तेलसे परे कुछ नहीं है, इसीतरह घृत प्रयोग का यह तात्पर्य है कि सरसों का तेल | किसी से पर नहींहै अर्थात् घृतसे पूर्व अन्य वकरी क दुध तथा विकिर और प्रतुद द्रव्य नहींहै, इसलिये यथापूर्व कहनेसे वसा
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