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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८८०) अष्टांगहृदयः। अ० २७ साधे पर परिषेक । व्रणका संधान । भ्यग्रोधादिकषायेण ततः शीतेन सेचयेत् लवानि व्रणमांसानि प्रालिप्य मधुसर्पिषा। तं पंचमूलपक्केन पयसा तु सवेदनम्। संदधीत वणान् वैद्योबंधनैश्चोपपादयेत् । . अर्थ-बंधन खोलकर न्यग्रोधादिगण के अर्थ - घाव का मांस लटक पड़ने पर ठण्डे क्वाथ से संधि पर सेचन करे । अत्यन्त घी और शहत का लेप करके घाव को बेदना होने पर पंचमूल डालकर औटाये हुए | मिला देवे, फिर यथायोग्य बंधन से बांध दूध से परिषेक करना चाहिये । चक्रतेल का प्रयोग । - व्रण पर अवचूर्णन । सुखोष्णं वावचायस्थाच्चक्रतैलविज्ञानता तान्समान्सुस्थितान ज्ञात्वा फलिनीरोधूकविभज्य देशकालं च वातघ्नौषधसंयुतम्। टफलैः । __ अर्थ-देश और काल के अनुसार अवस्था समंगाधातकीयुक्तै चूर्णितैरवचूर्णयेत् । धातकाराषचूणैर्वा रोहंत्याशु तेथा वणाः । की विवेचना करके बातनाशक औषधों से ___ अर्थ ऊपर लिखी हुई रीति से जब युक्त सुहाता हुआ गरम ताजी घानी के घी घावोंकी समान आकृति और एकसी स्थिति का प्रयोग करे । होजाय तब उस पर प्रियंगु, लोध, कायफल .. शीतल परिषेक । मजीठ, धाय के फूल इनका चूर्ण बुरक देवे, प्रततं सेकलेपांश्वविदघ्याभृशशीतलान् । अथवा धाय के फूल और लोध का चूर्ण अर्थ-अत्यन्त शीतल परिषक और लेपों बुरक दे, इससे घाब जलदी भरजाता है । का निरंतर प्रयोग करें। साध्यासाध्य घाव। गृष्टि क्षीरपान । | इति भंग उपक्रांतः प्रष्टिक्षीरं ससर्पिष्फ मधुरोषधसाधितम् ।। स्थिरधातो ऋतौ हिमे ॥ प्रातःप्रातःपिवेद्भग्नः शीतलंलाक्षयायुतम् । मांसलस्याल्पदोषस्यसुसाध्योदारुणोऽन्यथा ___अर्थ-टूटी हुई अस्थिवाला मनुष्य पह- अर्थ-इस तरह भंगचिकित्सा का वर्णन लौन गौ का दूध मधुर गणोक्त द्रव्यों के | किया गया है । साथ औटाकर उसमें धी और लाक्षारस जिसकी धातु स्थिर है, जो बहुत पुष्ट है मिलाकर ठण्डा कर के प्रति दिन पान करे । और जो अल्पदोषों से आक्रांतहै उसके घाव सवण भग्नकी चिकित्सा। हिमऋतु साध्य होते हैं । इन अवस्थाओं से सवणस्य तु भग्नस्य व्रणा मधुघृतोत्तरैः। विपरीत अवस्था में अर्थात् धातु की आस्थकषायैः प्रति सार्योऽथ शेषो भगोदितःक्रमः रता, देहकी कृशता, दोषकी अधिकता और ___ अर्थ-घाववाल भग्न रोगी के घाव का | गरमी की ऋतु होने के कारण घाव असाध्य घी और शहत से संयुक्त कषाय द्वारा होता है | प्रतिसारण करे, शेष सब उपाय भग्न के संधिकीस्थिरता का काल । समान करने चाहिये । । पूर्वमध्यांमययसामेकद्वित्रिगुणैःक्रमात ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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