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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (८४१) मासैःस्थैर्यभवेत्संधैर्यथोक्तंभजतोविधिम् ।। स्नेहन, और स्वेदन से मृदु की हुई संधियों अर्थ-यथोक्त रीति से चिकित्सा करने को अपनी बुद्धि के अनुसार कही हुई गीतसे पर बालक की संधिके जोडने में जितना | यथास्थान में स्थापित करे । काल लगता है, उससे दूने कालमें मध्य- असंधिभग्न में कर्तव्य ।। मावस्थावाले की हड्डी जुडती है और तिगुने असंधिभन्ने रूढे तु विषमोल्वणसाधिते । काल में वृद्धमनुष्य की संधि जुडती है। आपोथ्य भंग यमयेत्ततो भग्नवदाचरेत् ३१ कट्यादिभग्न में कर्तव्य । अथे-संधिके सिवाय अन्य स्थान की करीअंघोरुभनामां कपाटशयन हितम। भग्नता में घावके पुर जानेपर विषम और यंत्रणार्थ तथा कोलापंच कार्यानिधनाः। उल्वण रीति से साधितकर भग्नस्थान को जंघोऊः पार्श्व योद्वौ द्वौ तलएकश्चकालकः | तोडकर योजना कर देवे और भग्नवत् श्रोण्यावापृष्ठवंशे वा वास्याक्षकयोस्तथा | चिकित्सा करे । अर्थ-कमर, जांच और ऊरुके टूटने पर भग्नके न पकने का उपाय। रोगी को काठ के तख्ते पर शयन करावे, भग्नं नैति यथा पाकं प्रयतेत तथा भिषक् । रोगी हिलने न पावे इसलिये उस काठ के पकमांससिरानायुसंधिः श्लेष न गच्छति तख्ते में पांच कील गाढकर बांध देवै । अर्थ--जिस तरह भानस्थान पकने न दोनों जांवों के इधर उधर एक एक, दोनों पावे, वही उपाय करे | क्योंकि संधिका मांस अरुओं के इधर उधर एक एक, और पद- सिरा और स्नायु के पकजाने से फिर जुड तल में एक कील गाढे । श्रोणी और पीठ | नहीं सकता है । का बांसा टूटने पर भी पांच कीलों से बांधे भग्नमें स्नेहप्रयोग ॥ दोनों पसवाडों में दो दो और तलेमें एक । वातव्याधिविनिर्दिष्टान् स्नेहान् भन्नस्य योजयेत् ॥ ३३॥ पात्र और अक्षक के टूटने पर भी पांचही चतुः प्रयोगान् बल्यांश्च बस्तिकर्म लगाई जाती हैं। चशीलपेत् ॥ ३३॥ - पट्टीखोलने की विधि। अर्थ--भग्नमें वातरोगों में कहे हुए स्नेह विमोक्षे भानसंधीनां विधिमेवं समाचरेत् के चार बलकारक प्रयोगों को पान, नस्य, - अर्थ-भग्नसंधिकी पट्टी खोलनेमें भी इसी अभ्यंग और अनुवासन द्वारा प्रयोग करे, उपायका अवलंबन करना चाहिये । । तथा वस्तिकर्म भी करे। चिरविमुक्तसंधि में स्नेहन __ भग्न में मात्रादि द्वारा उपचारः । संधींरिचरविमुकास्तु स्निग्धान्स्वन्नान्- | शाल्याज्यरसदुग्धाद्यैः पौष्टिकैरविदाहिभिः मृतकृतान् । माश्योपचरेद्भग्नं संधिसंश्लेषकारिभिः॥ उतैविधानर्बुद्धया च यथास्वंस्थानमानयेत् ग्लानिर्नशस्यतेतस्यसंधिविश्लेषकृद्धिसा अर्थ- बहुत दिन के हटे हुए जोडों में अर्थ-भग्न मनुष्य को शालिचावलों का १११ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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