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अष्टांगहृदये।
अ.३०
अर्थ-सब प्रकारके शस्त्र और अनुशस्त्रों | लवान् वा बलहीन मनुष्यके, यथा ज्वर, अके प्रयोगकी अपेक्षा क्षारका प्रयोग सर्वोत्त- | तिसार हृदयरोग, शिरोरोग, पांडुरोग, अरुचि म है, क्योंकि क्षारसे छेदन, भेदन, लेखन । तिमिररोग, कृतसंशुद्धि, (जिसको वमनविरे
और पाटनादि बहुत प्रकारके कर्म सिद्ध हो । चनद्वारा शुद्ध किया हो ) सव शरीर व्यापी जाते हैं । देहके उन विषम अंगोंमें जहां श | सूजन, इन रोगोंमें क्षारका प्रयोग न पीनेमें स्त्र का प्रयोग कठिनता से होता है वहां इस न लेपमें करना चाहिये । इसीतरह डरपोक, का प्रयोग सहजमें होजाता है, जो जो कठि गर्भिणीस्त्री, रजस्वला, उदावर्तयोनि (इसरोनरोग शस्त्र कर्मसे सिद्ध होनेमें नहीं आते हैं | ग का वर्णन उत्तर तंत्रमें किया गया है ), वे सब रोग क्षारके प्रयोगसे सहजमें सुसाध्य | बालक, वृद्ध, धमनी, संधि, मर्मस्थान , तरुहोजाते हैं । क्षार पीनेमें भी प्रयोग किया जा णअस्थि, सिरा, स्नायु, सेवनी, गला, नाभि ता है, इससे क्षार सर्वश्रेष्ठ है। अल्पमांस, बालादेह, वृषण, मेद, स्रोत' नक्षारके उपयुक्त विषय ।
खांतर' वत्मरोग को छोडकर अन्य नेत्ररोग सपेयोऽशेऽग्निसादाश्मगुल्मोदरगरादिषु। ।
तथा जाडा, गर्मी' बर्षा, ऋतुओंमें, बादल योज्यःसाक्षान्मषश्वित्रवाहाशकुष्ठिसुप्तिषु॥ भगंदरार्बुदग्रंथिदुष्टनाडीवणादिषु ।।
के दिन । इन सबमें पान वा लेपन दोनों अर्थ-अर्शरोग, अग्निमांद्य, पथरी, गुल्म | प्रकारत
प्रकारसे क्षारका प्रयोग नहीं करना चाहिये । रोग, उदररोग, गररोग, तथा आनाह और | क्षार की क्रिया। शूलादिमें क्षारका पीना उचितहै । मप (म- कालमुष्ककशम्याककदलीपारिभद्रकान् । स्सा ), श्वित्रकुष्ठ,वाह्यअर्श, कुष्ठ, सुप्ति, भ
अश्वकर्णमहावृक्षपलाशास्फोतवृक्षकान् ।
इंद्रवृक्षार्कपूर्तीकनक्तमालाश्वमारकान् ॥९॥ गंदर, अर्बुद, ग्रंथि, दुष्टनाडी, दुष्टमण तथा
काकजंघामपामार्गमग्निमथाग्नितिल्वकान् । चर्मकील, वर्म और तिलादि में लेप करनेके सार्द्रान्समूलशाखादन्खिंडशःपरिकल्पितान् काममें आता है।
कोशातकश्चितस्रश्च शूकनालं यवस्य च । क्षारका निषेध।
| निवाते निचयीकृत्य पृथक्तानि शिलातले ।। न तूभयोऽपियोक्तव्यापित्त रक्तबलेखन प्रक्षिप्य मुष्ककचये सुधाश्मानि च दीपयेत्। ज्वरेऽतिसारे हृन्मृर्धरोगे पांड्वामयेऽरुचौ।।
ततस्तिलानां कुतालैर्दग्ध्वाऽग्नौ विगते पृथक् तिमिरे कृतसंशुद्धोश्वयथौसर्वगात्रगे ॥५॥
| कृत्वासुधाश्मनां भस्म द्रोणं त्वितरभस्मनः भीरुभिण्यतुमतीप्रोद्वत्तफलयोनिषु ।।
मुश्ककोत्तरमादाय प्रत्यकं जलमृत्रयोः१३॥ अजीर्णेऽन्ने शिशौ वृद्धे धमनीसंधिमर्मसु ॥ |
गालयेदर्धभारेण महता वाससा च तत् ।
यावत्पिच्छिलरक्तच्छस्तीक्ष्णो जातस्तदातरुणास्थिसिराखायुसवनीगलनाभिषु ।।
. च तम् ॥१४॥ देशेऽल्पमांसे वृषणमेस्रोतोनखांतरे ॥७॥ | गृहीत्वालारानस्यंदं पचेलौह्यांविघट्टयन् । वर्मरोगोहतेऽक्ष्णोश्च शीतवर्षांष्णदुर्दिने । | पच्यमानेस्तततास्मस्ताःसुधाभस्मशर्कराः
अर्थ दूषितपित्तमें, दूषितरक्तमें, अति ब शुक्तिक्षारपंकशंखनाश्चिाऽऽयसभाजने।
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