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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ०३० सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (२४३) अर्थ-जिस घावमें कीडे पडजाय उसको || इस नियम का पालन आदरपूर्वक छ: सात धौने और पुरानेके लिये सुरसादिगण में लि महीने तक करना उचित है। खी हुई औषधोंका प्रयोग करे । तथा सात वैद्य को उपदेश । लाकी छाल, कंजा, आंव, नीम,और सोंदा- उत्पद्यमानासुचतासु तासु ल की छाल इनको गोमूत्रमें पीसकर लेपकरे घातांसु दोषादेवलानुसारी। क्षारके जलका परिषेक ( तरक्षा ) करे । अ तैस्तैरुपायैःप्रयतश्चिकित्से. दालोचयन् विस्तरमुत्तरोक्तम् ॥८॥" थवा उस घावके ऊपर मांसकी पेशी ढकक अर्थ-वैद्य को उचित है कि इस स्थानपर र कीडाको शीघ्र निकालड ले । मांस पेशी धरने का कारण यह है कि मांसके लोभसे घावके संबंध वाली जिनजिन बातों का वर्णन कीडे निकल निकल कर उससे चिपट जाते हैं नहीं कियागया है उनका दोष , देश और कालके अनुसार विचार करता हुआ उत्तरतं. वा ऊपरको आजाते हैं , ऐसा होनेपर सहज में निकाल दिये जाते हैं | त्रमें लिखी हुई सब बातों को ध्यानपूर्वक भीतर दोष वाले घाव । आलोचना करके उन उन उपायों द्वारा हर प्रकार के घावों की चिकित्सा करने में साव न चैनं त्वरमाणोऽतःसदोषमुपरोहयेत्७७। सोऽल्पेनाप्यपचारेण भूयो विकुरुते यतः॥ धानी से प्रवृत होवे । । अर्थ-जिस घावके भीतर दोष मौजूद इति श्री अष्टांगहृदथे भाषाटीकायां हो उसको झटापटी करके पुराने अर्थात् भरने का उद्योग न करै । क्योंकि जो व्रण एकत्रिंशोअध्यायः॥ ऊपर से सूखजाते हैं और उनके भीतर दोष रहा आता है तो थोडे से भी अपचार त्रिंशोऽध्यायः। से ये घाव फिर हरे होजाते हैं और विकार को प्राप्त होजाते है इसलिये घावको निर्दोष करके रोपण करना चाहिये । अथाऽतक्षाराग्निकर्मविधिमध्याय व्याख्यास्यामः । रोपित व्रणमें वर्जित कर्म । व अर्थ-अब हम यहांसे क्षाराग्निकर्म बिरूढेऽप्यजीर्णव्यायामव्यवायादनि विवर्जयेत् । | धि नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। हर्ष क्रोधं भयं वापि यावदास्थैर्यसभवात्।। आदरेणानुवत्योऽयं मासाम्पटू सप्तवाविधिः | क्षारकर्म को श्रेष्ठत्व । __ अर्थ-घावके भर जाने पर भी जबतक "सर्वशस्त्रानुशस्त्राणांक्षारः श्रेष्ठो अच्छी तरह स्थिरता उत्पन्न नहो तबतक बहूनि यत्। अजीर्ण भोजन, व्यायाम, मैथुन, हर्ष, क्रोध | | छेधभेद्यादिकर्माणि कुरुते विषमेध्वपि॥ १॥ दुःखावचार्यशस्त्रेषु तेन सिद्धिमयात्सु च। तथा अन्य भयोत्पादक कर्म न करना चाहिये । अतिकृच्छ्रेषुरोगेषुयच्च पानेऽपि युज्यत । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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