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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( २४२ ) www. kobatirth.org अष्टहृदय- | अर्थ - पट्टी से बांधा हुआ घाव यदि वह चूर्णित अस्थि में हो, टूटी हुई अस्थि में हो, वा अपने स्थान से हटी हुई संधि में हो, अथवा फटगया हो, अथवा जिस घाव में नस वा रग फटगई हो, ऐसा घाव पट्टी से बंधा हुआ रखने पर शीघ्र भर जाता है, परन्तु उठने बैठने सौने, करवट बदलने आदि से घाव में पीडा न होने पावै । पांच प्रकार के ब्रण उद्वत्तौष्ठः समुत्सन्नो विषमः कठिनोऽतिरुक् ॥ समो मृदुररु शीघ्रं व्रणः शुध्यति रोहति । अर्थ - जिन घावों के किनारे ऊपर को उठकर गोल होगये हैं, जो बहुत ऊंचे हो गये हैं जो वहुत कठोर हैं वा वहुत वेदना से युक्त हैं, ऐसे पांच प्रकारके बाव बंधन के प्रभाव से अपने अशुभ रूप को छोड़कर अर्थात् समान, मृदु और पीडा रहित होकर बहुत शीघ्र शुद्ध होकर भर जाते हैं । स्थिरादि व्रणोंका वर्णन । स्थिराणा मल्पमांसानां रौक्ष्यादनुपरोहताम् ॥ प्रच्छाद्यमौषध पत्रैर्यथादोषं यथर्तु च । अजीर्णतरुणाच्छिद्रैः समंतात्सु निवेशितैः ॥ धौतैरकर्कशैः क्षीरी भूर्जार्जुन कदंबजैः । अर्थ - चिरकालानुबंधी और अल्प मांस वाले घाव तथा रूखेपन से जो पुरने में न आवें उन पर कल्क स्नेहादि जो औषध लगाई जाती है उस पर क्षीरी,भोजपत्र, अर्जुन बा कदंब के पत्ते दोष और ऋतु के अनुसार चारों ओर बिछाकर बांध देने चाहिये, जैसे वातज व्रण में शीत ऋतु में स्निग्धोष्ण, काल में पित्तत्रण पर शीतवीर्य । उष्णकाल घ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २९ में कफजत्रण पर रूक्षोष्ण तथा साधारण काल में मिश्र दोषों में बुद्धि से कल्पना कर लेनी चाहिये । ये पत्ते पुराने, छिद्रयुक्त और कर्कश न हों किन्तु नये निकले हुए पत्तों को जल से धोकर अच्छी तरह लगावै For Private And Personal Use Only न बांधने के योग्य व्रण । कुष्टिनामग्निदग्धानां पिटिका मधुमेहिनाम् ॥ कर्णिकारों दुरुविषे क्षारदग्धा विषान्विताः न मांस्पाके च वनयाद्गुदपाके च दारुणे ॥ शीर्यमाणाः सरुग्दाहाः शोफावस्थाविसर्पिणः । अर्थ कुष्ठरोगी, आग से जले हुए, पिटिका वाले तथा मधुमेही के घाव पर पट्टी न बांधे । चूहे के विषसे जो चकत्ते पड़ जाते हैं उनको न बांधे, क्षारदग्ध, विषान्वेत, मांस पाक और दारुण गुदपाक जनित व्रणों पर पट्टी न बांधे । शिथिलता को प्राप्त हुए, वेदनायुक्त, दाहयुक्त, शोफावस्था के व्रण तथा विसर्पावस्था को प्राप्त हुए घावों पर पट्टी न बांधे । कृमिवाले घावों का वर्णन । अरक्षया व्रणे यस्मिन् मक्षिका निक्षिपेत्कृमीन ये भक्षयतः कुर्वतिरुजाशोफास्त्रसंस्त्रवान् । अर्थ - जिन घावों की पट्टी आदि बांध कर रक्षा नहीं की जाती है उन पर मक्खियां बैठकर कीडों को छोड़ देती हैं । ये कीड़े घाव के मांसको खाते हैं जिससे वेदना, सूजन और रुधिर का स्राव होने लगता है। कृमियोंकी चिकित्सा | सुरसादि प्रयुंजीत तत्र धावनपूरणे ॥ ७५ ॥ सप्तपर्णकरंजार्कनिंबराजादनत्वचः । गोमूत्र कल्कितो लेपःसेकःक्षारांबुना हितः ॥ प्रच्छाद्य मांसपेश्या वा व्रण तानाशु निर्हरेत् ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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