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अ० १४
निदानस्थान भाषाटीकासभेत ।
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(४३३)
कृमियोंके दो भेद। और नवीन अन्नका भोजन करनेसे अधिकृमयस्तु द्विधा प्रोक्ता बाह्याभ्यंतरभेदतः। कतासे उत्पन्न होतेहैं। अर्थ-कृमि दो प्रकार के होते हैं एक
पुरीषज कृमि ।। वाह्य जो त्वचा पर उत्पन्न होते हैं, दूसरे शजा बहुविइधान्यपर्णशाकोलकादिभिः। आभ्यंतर जो देह के भीतर होते हैं। अर्थ-जौ, उरद आदि विष्टाको बढाने
जन्मसे कीडोंके चारभेद । वाले धान्य, पालक्यादि पत्रशाक और हरा बहिर्मलकफामुग्विड्जन्मभेदाच्चतुर्विधाः। शिंबी धान्य खानेसे पुरीषमें उत्पन्न होने नामतो विंशतिविधाः
वाले कृमि होतेहैं। अर्थ-जन्मभेद से कीडोंके चार भेद हैं
__कफज कृमियों का निरूपण । यथा-वाह्य मलोत्पन्न, कफोत्पन्न, रक्तोत्पन्न
कफादामाशये जाता वृद्धाः सर्पति सर्वत-। और पुरीपोत्पन्न ।
पृथुनधनिभाः केचित् केचिद्डूपदोपमाः । नामभेदसे कीडे वीस प्रकारके होते हैं
रूढधान्यांकुराकारास्तनुदीर्घास्तथाऽणवः। वाह्य कीडोंका वर्णन ।
श्वेतास्तानाबभासाश्व नामतः सप्तधा तु ते
अंबादा उदरापिष्टा हृदयादा महागुहाः। बाह्यास्तत्राऽसृगुद्भवाः ॥ ४३॥ |
कुरबो दर्भकुसुमाः सुगंधास्ते च कुर्वते। तिलप्रमाणसंस्थानवः केशांबराश्रयाः।
हल्लासमास्यरावणमविपाकमरोचकम्। बहुपादाश्च सूक्ष्माश्च यूका लिक्षाश्च नामतः
मूलीच्छर्दिज्वरानाहकार्यक्षयथुपीनसान् । द्विधा ते कोठपिटिकाकंडूगंडान प्रकुर्वते ।
अथे-कफसे उत्पन्न हुए सब प्रकार के अर्थ-इनमें से बाहर के कृमि रक्त से
क्रिमि आमाशय में उत्पन्न होतेहैं और वहीं उत्पन्न होते हैं इनका परिमाण, आकार
बढकर इधर उधर चलते फिरते हैं । इनमें और वर्ण तिलके समान होता है, तथा केश और बालों में रहते हैं । इनके पांव बहुत
से कितनेही पृथु और चर्मलता के हुएोते हैं और छोटे भी बहुत होते हैं इनका
सदृश और कितनेही केंचुए के सदृश होतेहैं । कुष्ठ २८,जू और लीख से दो प्रकार का होता
कितनेही अंकुरित अन्नके अंकुरोंके समान और शुक्र कोठ { पित्ती ), पिटिका, खुजली
कितनेही सूक्ष्म, कितनेही दीर्घ, कितनेही के योग्य है कत्ते पैदा करदेते हैं ।
छोटे, कितनेही सफेद और कितनेही तात्र
वर्ण होतेहैं । नाम भेदसे ये सात प्रकार के आभ्यंतर कृमि ।
हो हैं, यथा-अंबाद, उदराविष्ट, हृदयाद, कुष्ठैकहेतधोतर्जाः लप्मजास्तेषु चाधिकम् । मधुरानगुडक्षीरदाधिसक्तुनवोदनैः। महागुह, कुरव, दर्भकुसुम और सुगंध । कफ___ अर्थ-भीतर होनेवाले कृमि मिथ्या आ- जक्रिमियों के उत्पन्न होनेसे हृल्लास, मुखहार विहारादि से उत्पन्न होतेहैं कुष्ठ और | स्राव, अपरिपाक, अरुचि, मूर्छा, वमन,ज्वर, आभ्यंतर कृमि समान हेतु से उत्पन्न होतेहैं। आनाह, कृशता, हिचकी और पीनसये रोग इनमें कफज कृमि मिष्टान्न,गुड,दूध,दही,सत्तू, । उत्पन्न होतेहैं ।
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